विश्व वसुधा जिनकी सदा ऋणी रहेगी | Vishw Vasudha Zinaki Sada Rini Rahegi
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
481
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सर्वाधिक प्रचलित पुस्तक थी का अध्ययन व अरबी में
अनुवाद किया |
ददुपसन्त उन्होंने भारतीय दर्शन गन्धों का अरी में
अनुवाद किया । सांख्य और योगदर्शन का उन पर सर्वाधिक
प्रभाव हुआ । इसके बाद वे गीता की ओर आकृष्ट हुए ।
ग़रीखल हिंदू एक ऐतिहासिक कृति है--जिसमें सैकड़ों स्थानों
पर गीता के श्लोक उद्धृत किये हैं | यह एक भ्रकार से
तत्कालीन भारत का इतिहास, दर्शन और संस्कृति विषयक
कोष है जो उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रय है । अस्सी अध्यायों
में उन्होंने युग कल्पना, ईश्वर सम्बधी धारण, आत्मा और
कर्म का सिद्धान्त, पुनर्जन्म, स्वर्ग, नरक, मोक्ष, मूर्तिपूण और
विभिन्न प्रतिमाओं के पीछे छुपा रहस्य, वेद-पुणण, दर्शन,
ज्योतिष, भूगोल, सृष्टि की विभिल- जातियों का विवेचन,
गणित, ब्राह्मण, भारत का भौगोलिक परिचय, यज्ञ, दान,
विवाह, संस्कार आदि विषयों का समावेश, विवेचन तथा
अपना दृष्टिकोण है | - ५ .
भारतीय विचारों से प्रभावित होने के बावजूद भी उन्होंने
किसी विचार को केवल इसलिए नहीं मान लिया कि वह
जनप्रिय और लोक प्रचलित है । वल् उसके औचित्य और
आहार की तर्कपूर्ण दृष्टि से खोज करने के बाद ही उन्होंने
उसे अपनाया । उदाहरण के लिए ज्योतिष-में वे बह्यगुप्त से
सर्वाधिक प्रभावित थे फिर भी उन्होंने चद्ध्ग्हण के साबन्ध
में ब्रह्मगुप्त की राहु से असने वाली परम्पणगत धारणा को
अमान्य कर दिया । जबकि उस समय आर्यभट्ट मे अपनी
वैज्ञानिक खोजों के आधार पर यह सिद्ध कर दिया था कि
चन्द्रग्हण वस्तुतः चद्धमा पर पृथ्वी की छाया मात्र है | इस
परपणा भक्त के लिए अलबेरूनी ने ब्रह्मगुप्तनकी आलोचना
भी की थी 1
उन्होने स्वयं भी कई वैज्ञातिक खोजें कीं और तत्कालीन
गन्यकरों में सर्वोपरि स्थान भी प्राप्त किया । अलबेस्नी के
सम्बन्ध मे कहा जाता है कि उन्होंने १४६ पुस्तकें लिखी ।
लेकिन अधिकांश अब अनुपतब्ध हैं । भारतीय विद्वत्समाज में
भी उनका अच्छी-खासी प्रतिष्ठा थी और वे थे भी सर्वतोमुखी
प्रतिभा से सम्पल एक ,विद्वान, एक वैज्ञानिक और एक
विचारक । इन तीनों प्रवृत्तियों का उनमे ऐसा समन्वय था जो
बहुत कम ही देखने मे आता है ॥ साधनो और सुविधाओ
के अभाव का रोना रोकर कई लोग असफलताओ और
कठिनाइयों को रोते रहते हैं | जबकि साधन और सुविधाएँ
व्यक्ति के मार्य में कोई बाघा नहीं बनती । बाधा बनतीं है,
उसकी अपनी अकर्मण्यता और निष्क्रियता । पुरुषार्थी और
परित्रमी व्यक्त कभी साधनों, सुविधाओं और परिस्थितियों का
ही नहीं ठाकते । अलबेखनी की तरह आगे बढ़ते ही रहते
1 <
विश्व वसुषधा जिनकी सदा ऋणी रहेगी १.११
जीवन और साहित्य के गौरव निधि--
बाबू गुलाब राय
- प्रहलाद की कथा सुनकर बाबू गुलाब राय मे बचपन
में एक कुम्हार से अजीब घटना सुनी । ईंटों को पकाने के
लिए आवे में कुछ हंंडियोँ रख दी गयी थीं | कच्ची हेंडिया
में धा बिल्ली का छोटा-सा बच्चा और जब आवा खोला गया
तो वह बच्चा जीवित और स्वस्थ था । भीषण ताप और गर्भी
में भी उसकी रक्षा हुईं । वाबू गुलाब राय को बड़ा कौतृहल
। यह कह रहे हैं इसलिए सच है और यह भी सच
कि भगवान अपने भक्त की रक्षा करता है | फिर क्यों
न उस प्रभु का भक्त बना जाय । ३
घटना की यथार्थवा पर उन्हे बिल्कुल भी संदेह न हुआ
बल्कि इसने ठो ईश्वर के प्रति विश्वास को और भी सुदृढ़
बनाया ) अब समस्या यह हुई कि भगवान का प्रिय बनने
के लिए क्या किग्रा जाय | भक्ति-साधना और पूजा-पाठ
करती हुई माँ व पड़ौस की स्त्रियों को देखा तो वे इस साधन
भजन में लग गये । माँ और उनकी साथी महिलाएँ भजन
के रूप में तुलसी, सूर और मीए के भजन गाया करती थीं ।
इन महान भक्तों की वाणी में ईश्वर से किसी लौकिक वस्तु
की कामना नहीं की गयी है, माँगा गया है दैवी गण का
वरदान । ज्यॉ-ज्यो समझ बढ़ती गई, भजन साधन के साथ
चिन्तन-मनन भी चला और बाबूजी ने समझ लिया कि
आत्मपरिष्कार ही प्रभु का प्रियपातर बनने की सच्ची साधना
है । वे ईश्वर की उपासना के साथ-साथ सहज जीवन की
साधना की ओर भी आकृष्ट हुए ।
धार्मिक आस्थाओ ने उन्हें आत्मनिर्माण की प्रेरणा दी
और परिवार के वातावरण मे उस प्रेरणांकुर को हवा पानी ।
उनके पिताजी किसी शासकीय कार्यालय में साधारण क्लर्क
ये । छोटे-से-छोटे सरकारी कर्मचारी का भी उन दिनो बड़ा
मान-सम्मान होता था । जससा काम निकलेवाने के लिए लोग
भेंट लेकर आ जाया करते । बाबू गुलाब राय जी के पिता
ने सदैव ऐसे लोगों को निरुत्साहित किया । भेंट-रिश्वत में
लायी गयी बड़ी से बड़ी रकम को भी उन्होने बिना देखें
लौग दिया । देखने पर प्रलोभन पैदा हो सकता है न,
इसलिए | पर
, ऐसे वातावरण में गुलाब राय जी का हृदय मानवीय
जीवन भूल्यों के प्रति सहज ही निष्ठावान बनवा गया | माँ
का भक्तिभाव और पिता की चारिव्रिक-दृढ़ता इन दो गुणों मे
मिलकर समाज को एक ऐसा साहित्यकार दिया जिसके हृदय
में विद्या और सदुज्ञान की अधिष्ठाव्री सरस्वती ने अपना
आसन लगा कर चेतना और प्रज्ञा की गंगा प्रवाहित की ।
बाबू गुलाब राय जी ने स्वयं इस वातावरण को अपने साहित्य
सूजन की प्रेरणा माना है । , ह
उनका जन्म सन् १८८८ में उत्तर प्रदेश के शक
अत आजा कराकर नस आआामाक 7& अमाइााााकरः ामपमकिक यमन नमक:
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