संस्कृत साहित्य में सहाशय मूलक अलंकारों का विकास | Sanskrat Sahitya Me Sahasay Mulak Alankaro Ka Vikash

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Book Image : संस्कृत साहित्य में सहाशय मूलक अलंकारों का विकास  - Sanskrat Sahitya Me Sahasay Mulak Alankaro Ka Vikash

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रैर यहाँ भी हुस्‍्मता आदि तपा साइस्ये को एक मानना जावश्यक नहीं । यहां यह कहा गया है कि जब हुल्य आदि शर्णयों का प्रयोग होता है तम उस दो वस्तुओं में तृल्मता बताई जातो है। परनन्‍्तू वस्तूओं को तुस्म कहने से ही हमें उनको तुश्यता का ज्ञान नहीं हांता। हमें सुध्यता का ज्ञान तमी होता है बय हम साम्य पर विचार करते हैं। साम्य पर विचार करमे से पुल्पता के मूल में स्थित हस साम्््य का शान हमें हो बाता है। इस प्रकार साधर्म्म यहाँ अर्गगम्प होता है। इसीलिए वामनचार्य कहते हैं-- इत्पत्रोमय्रापि सामात्यता सलूरय॑ शोशयित्वा विस्तम्पापारेएु कुल्प छ्जादिष्वश्वेपु धर्मविज्ञेप॑ विया कंचमनयों. स्रादृश्यमिति साइरयस्थ ( दुष्पादिशस्वेमागिहितस्थ ) मलुपपस्या धर्मबिप्म॑पसम्मन्धप्रतीसिरिति सामर्म्यपयार्गेल्वादुपमाया मआर्यस्‍्वनमिति 7? --वालवाषिमी ० १५२। मस्मट घादि कतिपय आनद्धारिकों ने उपमा के थौसी हथा सार्पी दो बिमाग गिए है।' उपमा रा यह विगाबन इल आलद्धारिकों के अनुसार इव आदि हपा तृल्य आदि शब्दों के भेव पर श्राधित है। एव आदि के प्रमोग पर ये उपमा को भौती मामते हैं तथा तुस्मादि के प्रयोग पर उपसा को आर्पी मानसे हैं ।' इव आदि तथा तृल्य आदि के इस मेव के लिए यह आवरपक है कि इन दास्दों के थर्प में भेद स्वीकार किया जाए! सादुस्य हपा सावर्म्य को पृभक्‌ मालने वाले विद्वानों मे ऐसा स्वीकार करके इव मादि का अप॑ सावभ्ये सिया है तपा तुस्य आदि का अर्षे सादुश्म लिपा है।' इव मादि का प्रयोग करते पर सताभम्ये सास्द होगा तथा हादृश्य आये होगा । दुश्यादि का प्रयोय करते पर सादुश्व शाब्द होगा तथा साथ आर्य ३ फ्रौत्यार्पी व म्लेशक्ये ज्मासे ठदिते दया--श्यम्पफ्कारा पूठ (४८ | २ पयेगवादिषाष्दा वत्पप्रस्वस्प. ठस्सइमाबे भौती-क्ाम्बशकाश एप (४९ शापापस्पांधवातश्पादिशप्दोषादाने झाषो---क्रम्पफपश एव ५४२ ) ३ बमेवादिशम्दानों सापइस्वप्रबोगकृहापारथ्मठम्ब्पस्पे शापम्पें एव शक्ततबा अदेबादिययोगरपले छापारणबमेतम्-ब्पर्क्प सापर्म्य वाष्यं साइस्पप्रवीति सवापी | तुल्पादिशसानां शाइश्पवदि शफ्तेः तुक्यध्दशादिशम्दप्रगोगरपत्ञे साइस्य॑ गा्यं शापरफ्षपमेठश प्रन्‍प शापस्य व्यायम्रिति संश्योपे विशेषादुपपपते एव धौत्यापों बेदी दिाग' । +-अाहाश्नोपिनौं इ8 ४४६ |




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