चान्द्रव्याकरणम | Chandravyakaranam

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Chandravyakaranam by बेचरदास जीवराज दोषी - Bechardas Jeevraj Doshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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्त | है हे - होकर जर्म॑नी-में हुआ, यह हमारो विद्योपासना या विद्याप्रियता कितनी है, इसके “. -/ भापदंण्ड का सूचक है । जमेती में महापण्डित न्राउनो लाइबिश (छए7० 1169८) » - ने लिपजिंग शहर से चाच्द्रव्याकरण को सर्वप्रथम प्रकाशित किया। सूत्र और ह ः : वत्तिसहित संपर्णरूप से रोमनलिपि में यह व्याकरण उपलब्ध कराने का श्रेय :. . भहापण्डित ब्राउनों को ही मिला है । मेरे इस सम्पादन का मुख्य श्राधार वही ... रोमनलिपि में मुद्रित जमेस-प्रावृत्ति है। अतः इस कार्य के लिये महापण्डित _- ब्राउनों का मैं बहुत-बहुत आभारी हूँ। . हमारे स्नेहास्पद एवं श्रद्धेय श्राचार्य श्रीजिनविजयजी पुरातत्व के तो : प्रकाण्ड पण्डित हैं ही, तदुपरांत उसके अनुसन्धान में पुरातत्वविद्या की अ्नेकानेक _... उपयोगी पुस्तकों के प्रकाशन के भी उत्कट प्रेमी हैं और दुलभ, अ्लस्य प्राचीन . ्रस्थों को प्रकाश में लाने का भी उनका अत्युत्कट प्रयत्व रहता है। उनका सम्पुर्ण जीवन ही इसी प्रवृत्ति में व्यतीत हुआ है । उमर लगभग अस्सी के ' : 5 आसपास है, आँखें भी वहुत कमजोर हैं, शरीर भी काम देने से इस्कार कर रहा “है-तो भी हृ्संकल्पी आचार्यश्री श्रपने प्रियका्यँ से रुकते नहीं हैं। मेरा और ... उनका परिचय १६२० ई. से पहले का है। चबसे में आजतक देख रहा हूं कि लगातार अ्रविरत भाव से उनकी प्रवृत्ति में पूर्णविराम तो नहीं ही है, पर .. अद्धंविराम और अल्पविशम तक मेने नहीं देखा । उनकी यह प्रवत्ति भारत ही : नहीं भारत से बाहर भी सुविश्वुत है । उन्होंने श्राज तक 'सिंघी-जैन-प्रन्थमाला' में .. . ओर “राजस्थान-पुरातन-प्न्यमाला' में सेंकड़ों ग्रन्थ प्रकाशित कर दिये हैं । श्रौर रोज भी यह कार्ये चल ही रहा है। वे खुद ग्रन्थों का संशोधन-संपादन करते हैं तथा तत्तदृविषय के सोक्षरों ढ्वारा भी यह कार्य कराते हैं। उनके मन में . हु - खबाल हुआ कि चार्द्रव्याकरण भारतीय ॑ ग्रन्थ है, उसके विधाता भी भारतीय “ही हैं, फिर भी यह ग्रन्थ रोमनलिपि में सर्वप्रथम जमेंनी में प्रकाशित हो ही गया । भारत में इसका नाम केवल “इन्द्रब्चन्द्र:” वाले इलोक में ही देखा जाता . - है, पर इस ग्रन्थ का न किसी ने संशोधन-सम्पादन किया और न प्रकाशन ही -«. “किया। यह भारी लज्जा की बात है | इस शर्म को दूर करने के लिये उन्होंने ४. निश्चय किया कि 'राजस्थान-पुरातन-ग्रन्थमाला! में इसको स्थान दिया जाय 1 और प्रारंभ में इसके मूल सूत्रपाठ को ही प्रकाशित किया जाय । 2 मेरी रुचि व्युत्पत्तिविद्या में होने से वे जानते थे कि व्याकरणशास्त्र के -- संम्पादन और संशोधन में भी मेरी विद्येष प्रीति है, श्रतः यह कार्य उन्होंने मुझे 5 सौंपा.। मैने . बड़े रस के साथ इसका संशोधन श्रौय सम्पादन कर दिया और घ अब यह पाठकों के सामने आ रहा है।




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