सूर्यप्रज्ञप्ति - चन्द्रप्रज्ञप्ति | Suryapragyapti-chandrapragyapti

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Suryapragyapti-chandrapragyapti by ब्रजलाल जी महाराज - Brajalal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मणितानुपोग का गणित सम्यक्थ्ुत है मिथ्याथूतों की मामावली में गणित को मिव्याश्रुत माना है , इसका यह श्रभिप्राय नहीं है कि--'सभी प्रकार के गणित मिथ्याश्रुत हैं।” झात्मशुद्धि की साधना में जो गणित उपयोगी या सहयोगी नहीं है, बेवल वही गणित “ मिव्याश्रुत'” है, ऐसा समझता चाहिए। यहाँ “मिख्या” का प्भिप्राय “अनुपयोगी ” है, कठा नहीं । चैराग्य की उत्पत्ति के निमित्तो मे लोक्भावना प्रर्थात्‌ लोकस्वरूप का विस्तत पान भी एक निमित्त है*, भ्त प्रधो भौर ऊष्द लोक से सम्बाधित सारा गणित “सम्पक श्रुत है, बयोकि बह गणित प्राजीविका या भन्‍्याय सावध क्रियाप्रों का दवेतु नहीं हो सकता है । स्थानाग, समवायाग झोर व्याय्याप्रज्ञप्ति--इन तीनो अग्रों में तथा जम्बृद्वीपप्रशप्ति, चद्धप्रभप्ति भौर सूयप्रज्ञप्ति--इन तीनो उपागा में गणित सम्ब'धी जितने सूत्र हैं वे सब सम्यवश्रृत हैं। क्योकि अग, उपाग सम्यक्‌- श्रुत हैं 1 न्प मान्यताशो के उद्धरण-स्वमा यताझ्ो का प्ररूपण चद्नन्यूयप्रवप्ति मे भ्नेव मायताप्रों वे उद्धरण दिये गये हैं, साथ ही स्वमा-यताभो के प्ररूपण भी किये गये हैं। भय भायताप्रा वा सूचक “प्रतिपत्ति” शब्ट है। चाद्र-पुयप्रमप्ति मे जितनी प्रतिपत्तियाँ हैं, उनकी सूची इस भ्रवार है-- सूयप्रश्नप्ति मे प्रतिपत्तियों की सज्या प्राभूत प्राभतन्‍्प्राभूत सूत्र प्रतिपत्ति सब्या. प्राभत प्राभत प्राभूत. सूत्र प्रतिपत्ति सल्या १ ४ १५. ६ प्रतिपत्तियाँ १ दर २०. हे प्रतिपत्तिया १ नर १६ ५ प्रतिपत्तियाँ . २ १ २१ पर प्रतिपत्तियाँ हे ० १७ स्वमतक्थन॒ २ कै श्शु २ प्रतिपत्तियाँ १ ६ श्८ ७ प्रतिपत्तियाँ . २ ३३ २३ ४ प्रतिपत्तियाँ 1 ७ श्र ८. प्रतिफत्तियाँ . ३ ० रध १२ प्रतिपत्तियाँ ४एुक के समान स्वमायता' ४ 9 २५ १६ प्रतिपत्तियाँ प्राप्त श्रामृत प्राभत सूत्र प्रतिपत्ति शस्या प्राघृत प्राभुत-प्राभन सूत्र प्रतिपत्ति स्या 4 ० २६ २० प्रतिपत्तियाँ १० १ डेर ४ प्रतिपत्तियाँ धर ० २७ २४५ प्रतिपत्तियाँ १० २१ श्र ५ प्रतिपत्तियाँ ७ ० रुप २० प्रतिपत्तियाँ १७ ० प् २५ प्रतिपत्तियाँ ष ० २९. ३ प्रतिपत्तियाँ श्ष ० घ्घ९्‌ २४ प्रतिपत्तियाँ 6 ढ ३०. ३ प्रतिपत्तियाँ १९ ० १०० १२ प्रतिपत्तियाँ १ नादीसूत्र २ जगत्कायस्वभावों च सवेग वैराग्याम्‌॥ +तंत्यापसुत्त भ ७ [ १७)




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