श्री वैराग्य शतक भाग - 1 | Shri Veragya Satak Bhag - 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
284
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ९७ )
है तसलेय | मम सोह महांधघ कारम ।
छुरी ,करोत भवर्मक कृपावतार |॥ - *-
हे दान दत्त ! प्रददातु च मोत् लद्ष्मीम्।
आअम्यर्थना समु समेव मवत्सकाशे ॥ ३॥
रेड ध्ट€थ्ट
च्पर्थ् --वीनलोक में छपा ऊे अप्तास श्री महावीर प्रभ |
मरा मोह गद्दाथ्रकार नष्ट करो । ऐ दान दक्ष प्रभु ! मुझे तो मोद्ध लक्मी हो दो,
'यही शाप से इस रक दास की सदा श्रत्यत प्रितय भाष एवम् नप्नता पूर्यक
प्रार्थना दे ॥ ३ ॥
भावार्थ-तोन लोफ में एक छूपा के साह्ाग मर्तिमान री महावीर
भ्भु | आप मेरे मोहाथ फार को न्ट फीजिये तथा है दानदक्ष |अमयदान
आानदान देने में निषुण हे भगयाणा ) मुझे तो सचमुच ( मोक्ष दादमी ) कभी शी
नाश न होने वाली श्र्प्ध मोच्त लच्मी दीजिये यही मेंरी आप से प्रार्थना हे।
कारण कि इस मोक्त लक्ष्मी समान मष्टा ख़दमी कभी किसी समय आज तक
प्राप्त न हुई और यह लोकिक लद्ध्मी में सस्त घनी हुई यह जीवात्मा मोह को
यान में गिर कर भहाय दु थ॒ का पात्र चनी | परन्तु आप जैसे दानदक्ष प्रभु का
खमागम नहीं हुआ | _यह तो टीकूछी है कि जो रूच्मीवान होगा घदद दूसर्से
को लदमी दे सफेगा, परन्तु दरिद्ी के पाल रादमी की य/चना करने से बह लद॒पी
नहीं दे सझता | इसलिये हे सर्वश्न प्रभु ! में इस जगत में अशानता से मोह
महाधऊार में फस रहा हू, भय अ्रचण में भटक रहा हू जन्म, जरा, मृत्यु दे
डुप से दफ़ित दोरदी हू दथा आधयि व्याधि, और उपाधि के अतत्व
आर से दव ग्हा ह€, मेरा शुद्ध स्वरूप म॑ भूत गया है, कृतय्य त्यप्य
अकतेज्य के कनिए कर्म कर रहा ह | शाप इन सब से मुक्त है, अमल्य केवल
लदमी के स्वामी दो, दुनियाँ में मटटापरोपकारा्थ आप पिच कर यूले भदके
भग्य भक्ता को सम्मार्ग दिसाते हो, झधियार को दुर करने के लिये सूझे चत
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