स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य | Skand Gupt Vikrama Ditya

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Skand Gupt Vikrama Ditya by जयशंकर प्रसाद - jayshankar prasad

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about जयशंकर प्रसाद - jayshankar prasad

Add Infomation Aboutjayshankar prasad

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
भथम अः 1इ्यामा का यखदान समोहर मुक्ताओं से अगित रहा। | जीवन के उस पार उडाता हँसी, खड्ा में चम़ित रहा ॥ | बम जपनी प्िप्छर क्रीढा के पिश्रम से, बल्ले से। सुसी हुए, फिर दंगे देखने मुझे पथिक पहचाने-से ॥ | उस सुरा का आलिप्रिन करते व्भी भ्रूल वर जा याना। | मिलय क्षितिज तट मं मधु जलपिधि में मु हिल्‍्फोर उठा जाना ॥ कुमारदास-६ प्रवेश करे )-रटसाधु (० ५ साह्युप्त--अमरत के सरोवर में खर्ण-कमेंत फिल रहा था, अमर वशी बजा रहा था, सौरम ओर पराग की चहल पहल थी । सवेरे सूर्य की किरणें उसे चूमने को लोटती थीं, सध्या को शीतल चाँदनी उसे अपनी चारर से ढक ऐती थी। उस मघुरिसा का, उस सौंदर्य्य करा, उस अतीन्द्रिय जगत की साकार कल्पना की ओर हसने हाथ ब्रढ्मया था, वहीं वहीं खप्त हूट गया! कुमारटास--समम में नहीं आया, सिंदल में और क्ाश्मीर: में क्या भेद है । तुम गौरवर्ण हो लाम्बे हो, सिंची हुई भोँहें हैं, सब होने पर भी सिहालियों की घुघुगली लटें उम्बल' श्याम शरीर, क्या-क्या खप्न में देसने की वस्त नहीं ! माह्युप्त--पए्थ्वी झी समस्त ज्वाला को जहाँ प्रकृति ने अपने वर्फ के अध्चल से ढेंक दिया है, उस दिमालय फें-- कुमारदास--और बडवानल को अनन्त जलराशि से जो सतुष्ट कर रहा है, उस रत्नाकर यो--अच्चा जाने दो, रताकर तीचा हे गहरा है। दिमालय ऊँचा दै, गये से सिर उठाये है तब जय हो काश्मीर की | हाँ उस द्विमालय फे डा श््द




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now