उत्तराध्ययन सूत्रम भाग - 2 | Uttaradhyayan Sutram Bhag - 2

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Uttaradhyayan Sutram Bhag - 2  by आत्माराम जी महाराज - Aatnaram Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चतुदेशाध्ययनम्‌ ] हिन्दीमापाटीफासद्दितम्‌ । [ (८६ वचलियलनक्‍सनससससपफन सन पनननसपपपपसर पर पतप८८+९5८+> ८ >प >> > तप +ञप+++<२+<२००८२>८८०८--२०८८८-- कहा कि चेदबित्‌ छोग कहते हैँ कि पुत्ररद्दित की गति नहीं होती-'अपुश्रस्य गतिनौस्ति खर्गो नैष घ नैव 'व | गृदधर्म मनु्ठाय तेन खरे गमिष्यति' ॥ अयथौत्‌ पृत्र रहित मलुण्य को परछोक में सुस्त फी प्राप्ति नहीं होती | तात्यये कि पुत्र के विना इस छोफ में छुख् नहीं तथा परझछोक में भी पिंडदानादि के बिना सुख का प्राप्त होना फठिन है । अतयव क्षास्रकार्ों ने पुत्र शब्द की स्युत्पक्ति फरते हुए कहा है- 'पु नरफात्‌ ब्रायते इति पुत्र/-अथोस्‌ जो नरफ से धचाता है, पह्द पुत्र है । जब कि वेबबेत्ताओं फा ऐसा कथन है सथ मुम पेदाक्षा का उछघन फरफे फिस प्रफार मुनिश्ृत्ति फो धारण कर सकते द्वो, यह भ्रुगु फे कथन का आशय है । इसी अभिप्राय से शास्रफार ने शुगुपुरोशित फे बचन फो कुमारों फे तप रूप सयम का विघासक कट्दा है । तथा प्रस्तुत गाथा में उन कुमारों फे लिए जो झुनि क्षब्द फा प्रयोग किया है घहू भावी नैगस नय फे अनुसार है । सात्यये फि ये द्रव्य रूप से यद्यपि गृहस्प ही हैँ परन्तु भाव रूप से उनमें मुनित्य णी प्राप्ति दो चुकी है। इसलिए भाव की दृष्टि से उन्हें मुनि कद्दना उचित ही है । इसके झअनन्‍्सर पिता ने उन कुमारों के प्रति फिर कहां कि--- अहिज्न वेए परिविस्स विष्पे, युत्ते परिट्रप्प गिहंसि जाया। भोश्वाण भोए सह्द इत्थियाहिं, आरण्णगा होइ घुणी पसत्था ॥९॥ अधीत्य वेदान्‌ परिवेष्य विप्रान्‌, पुश्नान्‌ परिष्ठाप्य ण्दे. जातो । भुक्‍ता भोगान्‌ सह ख्रीमि., आरण्यकौ भवत सुनी अ्रशस्तों ॥९॥ पर्याथोन्वथय!---अद्विज्ज-पढ़कर पेए-पेदों को परिविस्स-भोजन अहके कर विप्पे-आाझणों को पुरे-पत्रों फो मरिहसि-भर में परिहृ्प-्यापन्न कर




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