न्यायबिंदु | Nyaayabindu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ भूमिंका | ( उदाहरणके लिये शरीर ) और शसंघात ( <दाहरणके लिये जीव ) दोनोको ही वतला सकता दै। यदि वक्ता दूसरेके लिये” शब्दकों असंघात श्र्थमें प्रयोग करे जिसको श्रोता संघात अथर्मे सममा जाव्रे तो उस समय साध्य हेतुके लिझुद हो जावेगा । उस समय वह हेतु इृश्विघातकृत्‌ विरुद्ध कहलाता है । घरमकीर्तिने अपने ग्रन्थ व्यायबिन्दुमें इसको पहिले विरुद्धका ही उदाहरण माना है। क्योंकि अनुमान वाक़्यमें प्रयेग किये हुए साध्यवाचक शब्दका एक ही अर्थ हो सकता है । और यदि कहे हुए और समझे हुए अञ्र्थोर्में सन्देह हो तो प्रकरणते पहिले वास्तविक अथ निश्चय कर लेना चाहिये । यदि प्रयोग किया हुआ अशथ्थ वास्तविक होगा तों साय और हेतुमें स्वाभाविक विरोध होगा । विरुद्धव्यभिनारी । दिख्नागने एक और हेत्वाभास विरुद्धाव्यभिचारी! भी माना है, जिसको उसने सेन्देहदका कारण कहा है । यह ऐसे स्थानपर होता है जब दो विरुद्ध परिणाम एक ही हेतु ( ४७)10 ५४प५7४ 7९७४०॥ ) से पु४ किये जाते हैं । उदादरणके लिये-एक वेशेषिक दाशनिक कहता है--- शब्द अनित्य है क्योंकि वह उत्पन्न होता है । एक मीमांसक उत्तर देता है-- शब्द नित्य है क्योंकि वह श्रत्य ( सनने योग्य ) है । उपरोक्त मामले में काममें लाये हुए दोनों हेतु कऋमसे वेशेषिक और मीमांसाके शिद्धान्तके पुष्ट करनेके कारण उन २ दशनकारों द्वारा ठीक माने जाते हैं । किन्तु दो विरुद्ध परिणार्मीपर लेजानेसे वह अनिश्चित है। और इसीलिये वह हेत्वाभास है । धमकीतिने न्यायबिन्दुर्में विरुद्धाव्यभिचारी हेल्वाभाथका निषेध (न्‍्था० फर० ८६-८८ भाषा० पृ० २४-२५ ) किया है। इसकी कारण उन्होंने यह दिया हे कि यह न तो अनुमानके विषयमें ही ठठता है और न॑ शाक्ष ही इसका आधार हे । हेतुका साध्यमें स्वभाव, कार्य या अनुपलब्धि रूपमें रहना आवश्यक हे और उसके द्वारा ठीक परिणाम निकलना चाहिये । .. परस्परविरोधी दो परिणाम ऐसे हेतुओंसे पुष्ट नहीं हो सकते जो ठीक (४४७॥10) हैं । परस्पर विरुद्ध दो परिणामोंके सिद्ध करने में दो शासत्र उसी प्रकार सहायता नहीं कर सकते जिस प्रकार एक शात्र प्रत्यक्ष और अनुमानकों पृष्ट नहीं कर सकता और बह केवल बुद्धिके न पहुँचने योग्य विषग्रोमें ही प्रमाण होता हे । इसलिये विशद्धाव्य- भिचारी श्रसंभव है । ५ टष्टान्तका काय | दिदनागके विरोधमें घमकोरति ( त्रिरुपो हेतुरुक्तः । तावतैब भर्थप्रतीतिरिति न पृथग्‌ दृष्टान्तो नाम साधनायवः कश्वित्‌। तेनास्‍्य लक्षणं एथग्‌ [ न ] उच्यते गताथे- त्यांत्‌ । ( नया प० ९१ भाषा० प्ृ० २६ ) सम्भवतः न” भूलसे छूट गथा हे।




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