सूरसागर | Soorsagar

Soorsagar by श्री सूरदास जी - Shri Surdas Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रीसूरदासजीका भीवनचरित्र । _सखा पुनीत मीत अतथारी। मन वच कम कृष्ण हितकारी। जब मथुरा तनि करत पाना । द्वाराबती आय. भगवाना ॥ ३॥ ते किपि चंचरीक बड़ भागी। सर्काहि सरोज चरण प्रभु त्यागी। भक्ति प्रेम कठू नवठ उमंगा। आयो दीनदयाछु॒ कर संगा ॥ ४॥ यद्यांपें आनंद भवन प्रसादू। ताके तहाँ सुलभ सब साधू थे निवास बृंदावन चारु। विहरन कु गठिन मनहारु ॥ ५ ॥ कृष्ण संग नित नव विठासा । सो न पठक कठ विसरत तासा। तन मथुरा बृंदावन मनुआं। ठग्यो रहत निष्ि दिवस भननुभां ॥ ६॥ करे समरन कठ कुंजन शोभा । होत प्रवठ जिय यादव छोभा। प्रभु सन वार बार अस वरनी। नम्रत विनय दिवस निशि करनी ॥ ७ ॥ कृपानिकेत जनन सुखदाईे। तुव सन कवन दिवस शुभ जाई । शुचि भंडीर विपिन मनहरना। रविजा कुंज सनख नग घरना ॥ ८ ॥ आन ठढ़ित लावण्य तर्नीके । देहु देव परमप्रिय नीके। जब ढांगे नियन नाथ सैसारा। सो प्रमोद किमि बिसरन हारा ॥९॥ अस प्रकार उत्कैठित रहना। इूंदाविपिन अहिर निश कहना। काठ पाय तब भक्त उबारा। छिए संग यादव परिवारा ॥ १० ॥ वृन्दावन दुरशन अनुरागा। नम्रत विनय करन जस ठागा॥ 3 ॥ चठन होहिं तुब दीन सनेहू । कब. कृपाढ॒ वृन्दावन तेहू। सो प्ररण्य कठ कुंज सुद्दाए। दीननाथ... मोरे. मनभाए॥ २॥ विसरत सोन भक्त सुखदाई। एकबार प्रभु देह दिखाई। तासु कथन सुनि त्रिभुवनराई । बोले वदन वचन सुसकाई ॥ ३ ॥ सुनह मीत प्रररवतताही। मोर गमन वृन्दावन माहीं। अब न दो पय भक्त सुजाना । मैं परिवार सहित निज. नाना ॥ ४ ॥ _ कुंज कुंज राधा युत चारू। तहाँ निवास करूँ मन हारु। ते मथुरा वृन्दावन जोही। जन बैकुंठ अधिक प्रिय मोदी ॥&॥ जवते तज्यों मनोहर नगरी । कढित कुंज ढीला निज सगरी। तबते यद्यपि मोर सुदावा। इद वैकुंठ अखिल सुख छावा॥ ६ ॥ . तद्यापि तिहि समान सुख॒दाई। उपज्यों नहिं न तनक सुखभाईे। . जिमिवाराणशि शंकर काहीं । विदित विश्व प्रिय मानस माही ॥ ७ ॥ तजत न तासु देव त्रिपुरारी। तिमि मथुरा मोहिं प्राणन प्यारी । . अजहूँ स्मरण होत मन भाई । ठढित बाठठीठा. सुखदाईं ॥ ८ ॥ ८ # ९ ० इक सा क्न् कर ११ दो -करिकौतुक करुणायतन निज विकुंठ कढघामागए गर्मनकरि भवनसुदु रमारमन अभिराम॥ चौपाई-ते यादव हरिभक्त सुजाना। तहाँपिजोरि युग निज पाना । दो०-सृतका भक्षण प्ूतना शकट विभ॑जनमित्र । अजुंन जयमठ मद्हरन अप वक बदन चरित्र 3 . कालीपद क्षय करन पुनि मोह नठन भवदेन । इूंदावन बंसीवजन चरन चार वरधेन ॥ २ ॥




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