ध्वनि सिध्दान्त | Dhwani Sidhant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ध्वनि-तिद्धान्त है ध्वनि का स्वरुप ध्वनिविरोधी मतों को प्रस्तुत करने के बाद आनन्ददर्घन ध्वि के स्वरूप का मिरूपण करते हैं । उनके अनुसार ध्दनि का लज्ञण इस प्रकार है यत्रापं शद्दों दा तमयंसुपसर्जनीइसस्वायों । व्यद्वुत काव्दयविशेष' स ध्वनिरिति सूरिभित कयित' ॥* अर्यात्‌ जहाँ अप (वाच्यार्थ) अपने को अयवा शब्द अपने श्र्य (वाच्यायें) को गीप करके उस अर्थ (प्रतीयमान) को व्यक्त करे उस काव्यविशेष को विद्वानों ने ध्वनि कहा है । इनमे से वाच्याय तो प्रसिद्ध हो है जिसका पूर्व लज्ञघकारों ने उपमा आदि के रूप में ब्याव्यान दिया है तत्र वाच्य प्रसिद्धो ये प्रकारेस्पमादिमि । बहुघा व्याइत' सोज्य 11० हिस्तु महार दियों दी. दारिएयों से प्रसप्त शतोयसन अप कुछ और ही वस्तु, है जो अलकारादि प्रसिद्ध अवयवों से भिन्न है और अज्भुनाओं के लायग्य की 'ारति प्रतीत होता है प्रहीयमाने पुनरम्यदेव, वस्त्वस्ति वाशीपु सहाकवी नामू 1 यतु तर प्रसिद्धावयवातिरिक्त विभाति लावण्यमिवा ज्ञनासु ॥ यहीं प्रतीयमान अपवा व्यइडग्यार्थ काव्य की आगमा है “काव्यस्या मा स एवाय >करसपसरध हर इस प्रशार दाव्य ने सभी भेदो में अइसीरूप में जो व्यदू स्पा की स्फुट प्रचोति होती है वही ध्वनि दा पूर्ण रूझ्ञण है सर्वेष्वेद प्रमदेपु स्मुटत्वेनावभासनम्‌ । पद ब्यज्भपस्या ज्रिभूतस्य तत्पुर्णे ध्वनिलज्ञधम्‌ ॥ रहे 9. प्यस्दापोइ 11134 10: सन्दादोद 113 । 11. दो 114 4 12. बहो 115 1 13. दो 2031




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