आचार्य शुक्ल के समीक्षा सिद्धांत | Acharya Shukra Ke Samiksha Sidhant

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Acharya Shukra Ke Samiksha Sidhant by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( रे ) सन्‌ १६२३-२४ ई० के श्रासपास दिखाई पड़ते हैं ।* श्रत: शुक्लजी के श्रागमन के पूर्व का हिन्दी-समीक्षा-काल द्विवेदी-युग का मध्य-काल निश्चित होता है । इसलिए, उनके झागमन के पूर्व की समीक्षा-प्रदत्तियों का सम्बन्ध इसी काल से माना जायगा | शुक्लजी के झागमन के पूर्व सैद्धान्तिक समीक्षा की प्रमुख प्रवृत्तियां- द्विवेदी-युग के मध्य-काल में हिन्दी-समीक्षा की ४ प्रमुख प्रदत्तियां दिखाई पड़ती हैं:--- १, परम्पराचा दी, २. पुनरुत्थानवादी, ३, नवीनतावादी तौर ४. समन्वयवादी, त्रत: ये ही प्रवृत्तियां शुक्लजी के त्ागमन के पूर्व की सेद्धान्तिक समीक्षा की प्रवृत्तियाँ मानी जायेगी । परम्पराचादी प्रचूत्ति-- सेद्धान्तिक समीक्षा हिन्दी को संस्कृत की विरासत-रूप में मिली, इसीलिए, उसकी प्रवृत्ति आारम्भ से हो परम्परावादी कोटि को थी । हिन्दी-तमीक्षा के प्रथम युग के रीतिकालीन श्राचार्य सुनिश्चित जीवन-दर्शन, सांस्कृतिक दृष्टि, रवात्म चिन्तन, तार्किक शक्ति एवं विदज्षेषण-शैली के श्रभाव में परम्परा में युग के झनुसार परिष्कार,; विकास तथा नवीनता लाना तो दूर रहा, उसका ठीक अजुकरण भी नहीं कर सके । इसीलिए उस युग में संस्कृत-समीक्षा के सात सम्प्रदायों में से केवल तीन-ग्रलंकार, रस तथा '्वनि-सम्प्रदायों के श्रनुकरण का प्रयत्न किया गया । रीति और गुणवाद, काव्यांग-विवेचन वाली पुस्तकों में काव्य-तत्व के रूप में उठाकर रख दिये गये, श्रौचित्यथाद काव्य-परिभाषा के भीतर कहीं कहीं चुपके से बैठा दिया गया तथा वक्रोक्तिवाद एक श्रलंकार के भीतर केन्द्रित कर दिया गया | * रीतिकाल में आ्रलंकार-निरुपण का कार्य सबसे श्रधिक डुद्आ किन्तु वैज्ञानिक दृष्टि के झभाव में केवल संस्कृत के लक्षण-अन्थों के श्रलंकार-लक्षण पद्य-बद्ध हुए,, शऔर वे भी कहीं कहीं भ्रामक और शपर्यात्त थे 13 कहीं कहीं उनके सेदोपभेदों का निरूपण झधिक हुआ; किन्ठु उससे झ्रलंकार की प्रकृति नष्ट हो गई तथा प-देखिए; .. इ-खिय समोलाशश्ियों बाला अभय ल्‍ एप र-हिन्दी झालोचना : उद्धव श्रौर विकास; डा० भगक्त्‌ स्वरूप मिश्र; -. पृ० १९८, १९९, २०४, दे 9 वी गग जक पू० १५,




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