श्री मुक्ति सोपान | Shri Mukti Sopan Guansithan Rohini

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Shri Mukti Sopan Guansithan Rohini by अमोलख ऋषिजी - Amolakh Rishijee

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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- है ख़बीके साथे कथा गया है. उस्त कथन प्रमाणे परहेत कर अनन्तात्मो ओ उन्नति दि- शा परमात्म पदको प्राप्त इंवे हैं. जिससे खातरी होती कि जिनेन्द्र प्रणितही भात्मोन्र तिका मार्ग तहा सत्य है. निशांकित है, परमादरानिय है तबही उपरोक्त गायामें फ- रमाया है।-- “इस संसारकां अति गहन दोर्ध पन्‍्थ जिसमें जीवों अनादि काल»से परे श्रमण कर रहे हैं, वो जीवों जो समय धर्म ( जिन प्राणित सुन्नानुसार प्दतिका सम्युक प्रकारसे) पालन करते हैं वो अनुक्रमसे सर्व दु।खों से मुक्त हो असन्त परम मुख के भक्ता बनते हैं. यह आत्मोग्ञात्ति (मोक्ष) का मांगे अनादि कालसे इस जगता लय में प्रहत रहा है जिसे आराध अनन्त जीवों युक्ति प्राप्त करी है, हतमान में महा- विदेह क्षेत्र से सख्याते भीरयों इसी मार्ग को आराध कर मोक्ष प्राप्त कर रहे हैं. और आगमिक काठमें इसी मार्गके प्रभावसे निर्दाण परवेंगे अथीत-मोक्त के मार्ग दोनही है. एकदी हैं ” वोही आत्पांग्राति (मुक्ति) का सस न्याय मांगे इस “मु-. क्ति-प्ोपान-गुणस्थादारोहण अ्दीशत द्वारी ” नामक ग्रन्थ में अनुक्रससे चउदह गु णस्थान द्वारा दर्शाया है. इसे पठन श्रवण कर पूर्ण श्रद्धा पूर्वक यथाविधी आराध- पाल आत्मोन्नति के इच्छको इ्ठार्थ सहज से साथ सके इसही उम्मेदसे इस ग्रन्थ को प्रसिंद्वी भें छाने की भुझ्य फरन समझ. आत्मोन्नतिके इच्छकों के कर कमलमें स- विनय समर्पण कर कृंतज्ञता समझताईं. लाला सुखदेव सहायजी-ज्वलाप्रसाद. यह ग्रन्थ निमाणं होने का भख्य प्रयोजन, परम पूज्य पण्टित राज कवीबरेन्द्र श्रातिलक ऋषिजी महाराजके हरत लिखित दो पत्रों (पाने) मुझे दक्षिण देशमे धर्म परिचार करने के मुख्य अधिफारिणी सतिशि- रोमणी महासतीजी श्री राम कवरजी के पाससे संवत्‌ १९५६ में प्राप्त हंवे. जिनमे १७४ ही गुणस्थानों पर ७२ यहां दशोता हुँः-दद्वारों संक्षोपेत यंत्र में लिखे थे. वो यंत्र वै- से ही रूपमे '#सपक ४५६ ६१३:४:-३४४९५: च्च्स्म्न्च्स्स्स्स्च्य्न्स्स्स्न्स्स्म््म्ल्स्म्म्म्म्म्ग््स्स्य्भ्भ्स्भ्भ््म्म्म्म्म्भ्यय्य््वि्चच्खय्चि्ध्य्ययय ्सध्ध्चय्च्धय्च्प्सपसय्भचयिय्चपप्सच्सस््स्स्स््लल्ल्ट्ल्हज्ट | कम अकपन+-सनकंन- अज>मय-ह-प:ल्‍०40०-8५५ ८. --बप कस जीप 7.५ इनक कप ६ 1 क- 18.




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