सृष्टि की कथा | Sristi Ki Katha

Sristi Ki Katha by डॉ. सत्यप्रकाश - Dr. Satyaprakash

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पु पहला अध्याय कालिमा अकस्मात्‌ू विलीन हो जाती है । नमभोमण्डल देंदीप्यमान हो उठता है भूमि पर दूघ के समान श्वेत ज्योत्स्ना फैल जाती ह। इस रजतवब्ण चन्द्रिका से जगती सुसज्ति हो जावी है। इसके शीतल आवरण में संसार की समस्त व्यथाएँ लुप्र हो जाती हैं | किसी सरोवर के तट पर खड़े होकर इस चाँदनी के दृश्य का अनुभव कीजिये निर्मल जल के अन्दर नील आकाश का बिम्ब और उसमें चमकते हुए तारों की असंख्य ज्योतियाँ एवं प्रत्येक तरज्ञ के उत्थान-पतन के साथ जलान्तगंत अनेक चन्द्र- मां की मिलमिलाती हुई मनोमोदक कान्ति सृष्टि के प्रासोद में विचित्र कौतूहल उत्पन्न करती है । यह पूर्शिमा की रात्रि व्यथित हृदय में शान्ति झालोक और क्षमता उत्पन्न करती है । सायं- काल से प्रातः्काल तक भूमि भी इस रात्रि में त्ीरसोगर बन जाती है । व न ् पूर्णिमा के पश्चात्‌ चन्द्रमा की केला प्रतिदिविस क्षीण होती जाती है घीरे-घीरे चन्द्रोदय में विलम्ब होने लगता हे । पूर्णचन्द्र से अधंचन्द्र रह जाता है और यह अधेचन्द्र भों केवल नख की वक्र परिधि के समान तीने-चार दिन तक ही रहता है । तत- पश्चात्‌ अमावस्या के दिन भूलीक का अन्धकार चन्द्रराशि पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लेता है । अब बेचारे रजनी-पति का कहीं पता भी नहीं चलता है । चारों ओर अँघेरा छा जाता हे । गगनांगंश में चमचमाते हुए तारे इस अमावस्या में पूर्णिमा के दिन से भी.




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