वीरवर्धमानचरितम | Viravardhamanacharitam

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Viravardhamanacharitam  by पं. हीरालाल जैन सिद्धान्त शास्त्री - Pt. Hiralal Jain Siddhant Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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” ध्रस्तावना १९ गौर उनकी कोई घटती या बढ़ती संख्या क्यों है ? इवेताम्बर शास्त्रोंके अनुसार जिस-किसी भी तीर्थंकरके समयमें जो भी विशिष्ट व्यक्ति दीक्षित होता था, उसके साथ दीक्षा लेनेवाले साथु-समुदायका वह गणधर बना दिया जाता था । वह गणघर कुछ काल तक तीर्थकरके समीप अपने शिष्य-परिवारके साथ ज्ञाता्जन और तपश्नरण करते हुए रहता था और योग्य हो जारेपर उन्हें स्वतन्त्र विहारकी अनुज्ञा दे दी जाती थी । उपर्युक्त विवेचनसे यह स्पष्ट हैं कि उक्त ११ गणघर अपने ४४०० शिष्योंके साथ एक ही दिन दीक्षित हुए । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि दिगम्वर परम्परा जहाँ ६६ दिनके पश्चात्‌ इन्द्रके द्वारा छाये गये इन्द्र भूति गौतमके प्रत्नजित होनेपर भगवान्‌ महावीरकी प्रथम देशना श्रावणरृष्णा “प्रतिपदाके प्रातः सुर्योदयके समय मानती है, वहाँ र्वेताम्वर परम्प्रामे इस प्रकारका कोई उल्लेख नहीं है। इसके विपरीत वहाँ वताया गया है कि वैशाखशुक्ला दशमीके दिन भगवान्‌कों केवलज्ञान प्राप्त होनेपर समवशरणकी रचना हुई, फिर भी भगवान्‌ने कोई देशना नही दी, कारण कि गणधरपदके योग्य किसी विशिष्ट पुरषका अभाव था। भगवान्‌ महावीरको केवलज्ञान प्राप्त होनेके कुछ समय पूर्वसे ही मध्यम पावापुरीमें सोमिल वामके ब्राह्मणनें अपनी यज्ञशालामें एक बहुत बड़े यज्ञका मायोजन-कर रखा था और उसमें उक्त इच्द्रभूति गौतम भादि ग्यारह ही महापुरुष अपने-अपने शिष्य-समुदायके साथ सम्मिलित हुए थे। जब केवलज्ञानको प्राप्ति जानकर देवगण भगवानकी वन्दनार्थ आकाशमार्गसे उतरते हुए आ रहे थे, तब इन्द्रभूति आदि यज्ञ करानैवाले विद्वानोंने यज्ञ में उपस्थित जन-समुदायको लक्ष्य करके कहा--देखो, हमारे मन्त्रोंके प्रभावसे देवगण भी यज्ञमें शामिल होकर अपना ह॒व्य-अंश लेनेके छिए आ रहे है । पर जब उन्होंने देखा कि ये देवगण तो उनके यज्ञ- स्थलूपर न आकर दूसरी ही ओर जा रहे है तब उन्हें वड़ा आश्चर्य हुआ । अनेक नगर-निवासियोंकों भी जब उसी ओर जाते हुए देखा तो उत्तके आश्चर्यका ठिकाना न रहा और जाते हुए लोगोंसे पूछा कि तुम लोग कहाँ जा रहे हो ? छोगोंने बताया कि महावीर सर्वज्ञ तीर्थंकर यहाँ आये हुए है, हम छोग उनका उपदेश सुननेके लिए जा रहे है । और हम ही क्या, ये देव छोग भी स्वर्गसे उतरकर उनका उपदेश सुननेके लिए जा रहे हैं । लोगोंका यह उत्तर सुनकर इच्द्रभूति गौतम विचारने छगे--वया वेदार्थसे शून्य यह महावीर सर्वज्ञ हो सकता है ? जब मैं इतना बड़ा विद्वान होनेपर भी आज तक सर्वज्ञ नहीं हो सका, तव यह वेदानभिज्ञ महावीर कैसे सर्वज्ञ हो सकता हैं? चलकर इसकी परीक्षा करनी चाहिए और ऐसा सोचकर वे भी उसी ओर चल दिये जिस ओर कि नगर-निवासी जा रहे थे । जब इन्द्रभूति गौतम समवशरणके समीप पहुँचे और उसकी अछोकिक शोभा देखी तो विस्मित होकर विचारने लगे--महावीर तो वड़ा इन्द्रजालिया ज्ञात होता हैं । अच्छा, यदि ये मेरें मनकी शंकाको जानकर उसका समाधान कर देगे तो मैं उन्हें सर्वज्ञ मान लूंगा । यह सोचते हुए गौतम जैसे ही भगवान्‌ महावीरके सामने पहुँचे, वैसे ही भगवानने कहा--भहो गौतम, तुम चिरकालसे आत्माके विपयमें शंकाशील हो ? भगवान्‌ के द्वारा अपनेको नामोल्लेखपूर्वक सम्बोधित करते हुए हृदयस्थ शंकाकी वात सुनकर गौतम अतिविस्मित हुए। उन्होंने भक्तिपूर्वक भगवानूको नमस्कार करते हुए कहा---हाँ भगवन्‌, मुझे आत्माके विपयम शंका है, क्योंकि--- /बिज्ञानधन एवैतेम्यों भूतेम्यः समुत्याय तान्येवानु विनव्यति, न परेत्यसंज्ञास्ति इस बेदबाक्यसे आत्माका अस्तित्व ज्ञात नहीं होता। तव भगवानूने इसी वेदवाक्यसे, तथा 'द्रव्योर्रेष्यमास्मा' आदि अन्य वेदवाक्योंसे विस्तारपूर्वक जआात्माके अस्तित्वकी सयुक्तिक सिद्धि की, जिसे सुनकर गौतमकी शंका दूर हो गयी और उनके हृदयके पट खुल गये । भगवान्‌की स्तुति करते हुए उन्होंने उसी समय अपने पाँच सौ शिष्योंके साथ भगवान्‌का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया और जिन-दीक्षा ग्रहण कर ली। भगवान्‌ने उन्हे उनके शिष्य-परिवारका गणधर बनाया। इस प्रकार भगवान्‌की देशना प्रारम्भ हुई ।




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