विविध तीर्थकल्प | Vividh Tirthakalp

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Vividh Tirthakalp by श्री जिनप्रभसूरि - Shri Jinaprabhasuri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ प्रास्ताविक निवेदन | साथ लिखे हुए हैं। इस संग्रहमें १५. १६. १८, ३३. ३४. ४२. ४६. ५१ से ५६ तक-इस प्रकार १३ कल्प अनुपलब्ध हैं । यद्यपि इस प्रतिमें कल्पोंका क्रम, अन्य सब प्रतियोंसे भिन्न प्रकारका है; तथापि वह कुछ अधिक संगत माल्यम देता है | गिरनार अर्थात्‌ उज्ञयंत अथवा रेबतक पवेतसे संबंध रखनेवाले जो ४ कल्प भ्रस्तुत प्रन्धमें हैं, वे जिस ऋरमसे इस प्रतिमें लिखे गये हैँ वह क्रम अधिक ठीक लगता है । उन्हींके बाद इसमें अबिकादेवी- का कल्प है जिसका भी सम्बन्ध एक श्रकारसे रेवतक पवेतके साथ होनेसे, उसका यह स्थान ठीक सम्बन्धयुक्त माल्म देता है | अम्बिकाकल्पके बाद ही जो कपर्शियक्षकल्प लिखा हुआ है वह भी उचित स्थानस्थित दिखाई दे रहा है । बल्कि इस कल्पके अन्तमें तो ग्न्थकारका कथन भी इस बातको सूचित करता है कि उन्होंने अम्बादेवी ओर कपाईदियक्ष, इस कल्पयुगकी (देखो प्रष्ठ ५६ का अन्तिम उछेख) एक साथ रचना की । ऐसा उल्लेख होने पर भी ये दोनों कल्प, ओर सब प्रतियोंमें क्‍यों भिन्न-क्रममें लिखे गये मिलते हैं इसका कोई कारण समझमें नहीं आता । उसमें भी अम्बिकाकल्प तो बिल्कुल ग्रन्थके अन्तमें जा पडा है जिससे बहुतसी प्रतियोंमें तो वह अनुल्लिखित ही रह जाता है । इसी तरह क्रमांक २६ ओर ४० वाले कल्प इस प्रतिमें साथ साथ लिखे हुए मिलते हैँ जो अधिक यथास्थित कद्दे जा सकते हैं । क्यों कि दोनोंका स्थान एक ही (पाटण ) है। सबके अन्‍्तमें कन्यानयनीयमहावीरप्रतिमाकल्प (क्रमांक २२) रखा है और उसके अंतमें प्रन्थ- समाप्तिसूचक कथन दिया है-सो भी एक प्रकारसे सम्बन्धयुक्त दिखाई देता है । इस प्रतिमें जिन कल्पोंका संग्रह है उनके अवलोकनसे माल्टम देता है कि प्रायः मुख्य मुख्य कल्प इसमें सब आगये हैं । जो इसमें संग्रहीत नहीं है उनमें कलिकुंडकुकुटेश्वर ( १५), हस्तिनापुर (१६ ), प्रति- छानपुर (३३ ), सातवाहनचरित्र (३४ ), वस्तुपाल-तेजःपाल ( ४९ ), कन्यानयनीयपरिशेष (५१) ओर अमरकुंडपद्मावती (५३ ) नामके कल्प कुछ महत्त्वके हैं । बाकीके कल्प तो नाम मात्रके करुप हैं । वास्तवमें वे तो स्तुति-स्तोतच्र हैँ जिनका ग्रन्थगत उद्देश्यके साथ कोई खास सम्बन्ध नहीं है । इससे यह ज्ञात होता है कि जिसने इस प्रतिको तैयार किया है उसने कुछ विचारपूबेक प्रयत्न किया है । इस प्रयत्नका कतो कोन है उसका कोई निणोयक उल्लेख नहीं प्राप्त होता । क्या जिस राजगच्छीय वाचक गुणकलद (* )ने उक्त दो कल्पोंका संस्कृत रूपांतर करनेका प्रयत्न किया है उसीने तो यह संग्रह इस कममें नहीं प्रथित किया हो ?। इस प्रति के अक्षर यद्यपि स्पष्ट ओर सुवाच्य हैं. तथापि पाठशुद्धि कोई विशेष उल्लेखयोग्य नहीं है । हां, कहीं कहीं इसका पाठ, अन्य प्रतियोंकी अपेक्षा अधिक उपयुक्त मिल जाता है जो सन्दिग्ध स्थानमें ठीक मद्द- गार हो जाता है। प्रतिके अन्तमें जो पुष्पिकालेख है उससे विदित होता है कि-संवत्‌ १५६५९ के आपाढ महिनेमें-सुदि १ सोमवार ओर पुनर्वसुनक्षत्रवाले दिनको-वैरिसिंहपुरके रहनेवाले श्रीमाली ज्ञातिके बहकटा गोन्रीय महं० जिणदत्तके पुत्र, महं० भाजाके पुत्र, महं०» रायमल नामक श्रावकने इस ग्रन्थको लिखवा कर, खरतर गच्छके आचाये श्रीजिनभद्र सूरिके शिष्य आचार श्रीजिनचंद्र सूरिके शिष्य आचाये श्रीजिनेश्वर सूरिके शिष्य वाचक साधुकीर्ति गणीको समर्पित किया । यह पुष्पिकालेख ग्रन्थान्तमें, पृष्ठ ११० पर, मुद्रित है । 12० प्रति- उपयुक्त स्थानमेंकी एक चौथी प्रति । इसकी पत्र संख्या २४ है। यह एक अपूण संग्रह है । इसका प्रथम पत्र दे उस पर ३० का क्रमांक लिखा हुआ है। ३० से लेकर ५३ तकके पत्रे इसमें उपलब्ध हैं। इसका प्रारंभ चम्पापुरीकल्प (क्रमांक ३५ ) से होता है, ओर समापन कन्यानयनीयमहावीरप्रतिमाकल्प ( ऋ्र० २२ ) के साथ होता है । इसमें सब मिलाकर १६ कल्प लिखे हुए हैं और उनका क्रम इस प्रकार है-




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