भट्टारक सम्प्रदाय | Bhattarak Sampraday
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
374
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about विद्याधर जोहरापुरकर- Vidyadhar Joharapurkar
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्तावरना ११
अछ्ठ अग है। जता के उद्यापन आदि के अवसर पर नियमित रूप स एकाघ
प्राचीन अन्थ की नई ग्रति लिखा कर किसी मुनि या आर्विका को दान दी जाती
थीं | गणितसारनग्रह जैसे पाठ्य पुस्तकों की कई प्रतिया शिष्यो के लिए तैयार की
जाती थीं। पुराने हस्तलिखित खरीद कर उन का सग्रह किया जाता था। पुरान
सग्रहों को समय समय पर ठीक किया जाता था। भ्रन्था की भाषा कठिन हो तो
उन के समासों में टिप्पण छगा कर पढ़ने के लिए साहाय्य किया जाता था। हस्त-
लिखितों की अन्तिम प्रशस्तियों का एतिहास्कि महत्त्व स्वमान्य है। इस ग्रन्थ में
सम्मिलित समयसार और पंचास्तिकाय की ग्रतियों की प्रशस्तिया नमूने के तोर पर
ठेखी जा सकती हैं| गणितसारसग्रह की प्रतिया भी प्रातिनिधिक हैं।
७, कार्य- शिष्यपरम्परा
जैन समाज में विद्याध्ययन की व्यवस्था कुल्परम्परा पर आधारित नहीं थी।
शायद इसी लिए, वह त्राह्मणपरम्पपण जितनी सुदृढ नहीं रह सकी। यह कप्ती दूर
करने के लिए, हमगा शिष्य परम्पराओं के विखार का प्रयत्न जैन साधुओं द्वारा
किया गया | भद्ारक सम्प्रदाव भी इस प्रवृत्ति को निभाता रहा। ग्रन्थ के मूल
पाठ से स्पष्ट होगा कि इस कार्य में भद्धारकों ने काफी सफल्ता प्राप्त की। अह्म
जिनदास, श्रंतसागरयूरि, पण्डित राजमछ आदि भद्यारकशिष्यो के नाम उन के
गुरुओं से भी अधिक स्मरणीय हुए हैं |
व्यक्तिगत महत्त्वाकाक्षा के फलस्वरूप जिस प्रकार भद्दारक पीठों की इद्धि-
हुईं उसी प्रकार भिष्य परम्पराओ का भी प्रथक् अस्तित्व रह सका। अनेक बार
देखा गया है कि भद्दारको के जो शिष्य पद्टामिषिक्त नहीं हुए थे उन की स्वतन्त्र
शिष्य परम्पराएं छह सात पीढियो तक चलती रहीं। गणितसारस्ग्रह ओर शब्दार्णव-
चन्द्रिका की प्रशसतियों मे इस के अच्छे उदाहरण मिलते है।
विभिन्न भद्दारक पीठो में सोहाद की रक्षा करने में भी “शिष्यपरम्परा का
महत्वपूर्ण उपयोग हुआ। दक्षिग के पण्डितदेव और नागचन्द्र जैसे विद्वानों का
उत्तर के जिनचन्द्र और ज्ञानभूपण जैसे भद्धारकों से सहकार्य हुआ यह इसी का
उठाहरण है। ब्रह्म ग्ान्तिदास के सूरत और ईंडर इन दोनों पीठों से अच्छे सम्बन्ध
थे | इसी प्रकोर पण्डित राजमकू मी माथुर गच्छ की दो मिन्न शाखाओं से एक ही
समय संल्म रह सके थे। कारजा के छाडबागड गच्छ के कवि पामो जैसे शिप्यो ने
नन्दीतट गच्छ के भद्दारकों से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित किए थे । इस दृष्टि से परस्पर .
User Reviews
No Reviews | Add Yours...