राज्यविज्ञान के मूल सिद्धान्त | Rajya Vigyan Ke Mool Siddhant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रभुत्व ] [ १७ वरता । वह केवल वानूनी प्रभु का हो विचार करने रुक जाता है शोर राज- नीति प्रभु वे सम्बघ में मौन रहता है जिसने सामत वास्तव मे उसे भना पडता है। वह प्लाघुनिव राज्य मे लावमत के प्रभाव बी उपशा करता है। इस प्रकार वह भ्रपर्याप्त है। राजनीतिब' प्रभुत्त फ सरवाध मे विचार बरन वी वठिनाइयों वा पिछले पृष्ठा मे उल्लस हो चुका है, प्रत उसवे सम्बंध में यहाँ प्रधिव विवेदद सनावश्यवा हागा। इसके विरुद्ध तीसरा भाध्वोप यह है कि निश्चित श्रप्ठतम मानव की बल्पना प्रभुत्व वी दाशनिक बल्पना वे! विपरीत है जिसके पनुसार प्रभुत्व सामाय इच्छा म है। सामाय इच्छा की व्यास्या ॥रना बठिन भले ही हा परन्तु उस्त बेवल भपोल-कल्पित समभना गलत हागा। प्रजात्तत्र म विश्वास उसी क प्राधार पर टिका हुप्ना है।जो भप्रभुत्व सिद्धात्त सामाय इच्छा पर विचार नही करता, वह थास्तव में भ्रपर्याप्त है। ग्रीन ने यह भली भात्ति प्रमारिशत बिया है कि भोसिटन ये सिद्धात के नि्चित श्रेध्ठतम मानव ये आदशा का सुमाज वा बहुमत इस कारण पालन वरता है कि वह जन-साधारण की इच्छा या प्रतिनिध माना जाता है । * समान को जो चीज़ सगठित रूप म॑ रखती है बह प्रभुत्व-सत्ता की शक्ति या बल नहीं वरन्‌ सामाय उदृष्या की सामाय चेतना है जिसका दूसरा नाम सामाय इच्छा है। ऑस्टिन का सिद्धांत इस तथ्य का स्वीकार नहीं करता वि समाज इच्छा पर प्राघारित है, बल पर नही । वह वल पर भनावश्यक जार दता है भौर इच्छा के तत्व की उपक्षा करता है। इस सिद्धांत था एक दूसरा दोप यह है कि इसकी बातुन को कल्पना अधूरी है । यह सत्य है थि काई भी नियम वानून का रूप उस समय तक धारण नही कर सकता जब तक उसका निर्धारण कानुनी प्रभु द्वारा नही हाता वितु यह भी सत्य है कि वातुन का स्लात विधान मण्डल की इच्छा से मिल है । कानून का खात लोवाचार, याय भावना आदि है। वानून को केवल प्रभु का झ्रादेश मानना बिलकुल गलत है | इस पर भागे विचार किया जायगा 1 झात मे, इस सिद्धात के विस्द्ध यह भी भाक्ष प किया जाता है कि इससे राज्य स्वेच्छाचारी बन जाता है भ्रौर ब्यक्ति की स्वत-त्नता का हाम होता है । कई >जमल तटालागाए।वार प्रणावा डाएटशट0ा'.. ज्यों] 00 50 (7टटदाएट 11791 वो कऔुटतालारटी] पएणा एजागरात् प्रान ैद्यागपें घाव १्रएटाएा चलहान गयाधएशु 1158 कप] जाते तराउजापरए 15 ब्रांड, 18 7टए0एगत5६प पट इल्छलां जवां] छ्लेठल बुला; 16 13. * [छ्वांट्क. एगाधर्णो प्राण का खिड्ीन्षाप 9 28)




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