| Dharamcharcha Sangrah
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
280
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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झान होता है। :इन्द्रियोंक सहारे! विना भात्मिकशक्तिसे' रूपी ,
पाने अर्थात् पुद्दल पदार्थक जाननेको अवधिज्ञान कहते है। देव
नीरकी ओर तीर्यकर,भगवानको' यह ज्ञान जन्मे ही होता है,
इस कारण इन तीनोंके अवधिज्ञानको सवप्रत्यय अवधिज्ञान कहते
है । मन॑ सहित पंचेन्द्रिय जीबकों मिप्त किप्ती कारंणप्ते ( तपसे )
यदिःअवधिज्ञान प्राप्त हो तो उप्तको गुण प्रत्यय अवधिज्ञान कहते
हैं। किप्ती मह॒प्यने नो कुछ अपने 'मनमें चिंतवन किया था ओर,
चितवन कर रहा है, अथवा आगामीका .चिंतवन करेगा उप्का
जानना मर्न पर्यय ज्ञान है। छठे गुणस्यानसे बारहव॑ गुणस्थाव तक
भुनिकों यह- मनःपर्य ज्ञान होताहै । लोक अलोककी भूत भविष्यत्
ओर वर्तमान सर्व वेसतुओको ओर सर्व वग्तुओंके सब गुण पर्यायकों
जानना केवरज्ञान है, केवलज्ञानमें कोई वस्तु जानता बाकी नहीं'
: रहती हैं.। अवधि मन पर्येय ओर कब यह तीन' ज्ञान इंद्रियोकि
सहारे' बिना. आत्मिक शक्तिसे नीवमें साक्षातंरूप होते हैं। इंस हेतु
इनको प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं परंतु मति ओर श्रुत' यह दो ज्ञान
इंद्रियोंके द्वारा होते हैं । इस कारण परोक्ष कहांते हैं। मति ज्ञानको
प्त्यवहारिक प्रत्यत भी कहते हैं । 5 * '
, 'संजस अथोत' संयम. मागणा-सात प्रकार है-
साम्रयिक,.. छेदोपस्थापना; , , परिहारविशुद्धि,, सुक्ष्मस्ताम्पराय,
यबाज््यात, -सर्यमासंयम. और असेयम | संयम-सम्यक प्रकार यम
निवध पालनेको संयम कहते हैं | अहिंता आदिक 'ब्रतोंका पालनों;
कोधादिक कषायोंका निम्रह ' करना, मन 'वचन कायकी अशुभ '
प्वृत्तिको रोकता और इच्द्रियोंकी: 'वशमें: करना संखस दै.। ,
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