हिन्दू धर्मकोश | Hindu Dharmakosh

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Hindu Dharmakosh  by डॉ.राजबली पाण्डेय -dr.rajbali pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अतीन्दिय-अपवंचेद भतीन्द्रिय--नैयायिको के मत से परमाणु अतीन्द्रिय है, ऐन्द्रिय नही । उन्हे ज्ञानेन्द्रियों से नही देखा अथवा जाना जा सकता हैं। वे केवछ अनुमेय हैं। आत्मा, परमात्मा अथवा परम तत्त्व भी अतीन्द्रिय है । अत्याध्सी--प्रथम तीनो आश्रमो से श्रष्ठ आश्रम में रहने वाला-सन्यासी । वह आत्मा को पूर्णत जानता हूँ तथा अपने व्यक्तिगत जीवन से मुक्त है, परिवार, सम्पदा एवं संसार से सम्बन्ध विच्छेद कर चुका है एवं वह उसे प्राप्त कर चुका हैं जिसकी केवल परिव्राजक योगी ही इच्छा -रखते है । अनञ्ति--ऋग्वेद का पञ्चम मण्डल अत्रि-कुल द्वारा सगृहीत हैं। कदाचित्‌ अन्रि-परिवार का प्रियमेध, कण्व, गोतम एवं काक्षीवत्त कुलो से निकट सम्बन्ध था। ऋग्वेद के पञ्मम मण्डल के एक मन्त्र में परुष्णी एवं यमुना के उल्लेख से अनुमान छगाया जा सकता है कि यह परिवार विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ था। अत्रि भोत्रप्रवर्तक ऋषि भी थे । मुख्य स्मृतिकारों की तालिका में भी अत्रि का नाम आता है । अनिस्मृति--यह्‌ ग्रन्थ प्राचीन स्मृतियों में हें। इसका उल्लेख मनुस्मृति (३१३) में हुआ है। आत्रेय धर्म- शास्त्र', अत्रिसहिता' तथा अन्रिस्मृति नाम के ग्रत्थ भी पाये जाते है । अरथर्वा--वेदकालीन विभिन्न पुरोहितकुलो की तरह ही यह एक कुल था। एकवचन में अथर्वा नाम परिवार के अध्यक्ष का सूचक है, किन्तु बहुवचन में 'अथर्वाण ' शब्द से सम्पूर्ण परिवार का बोध होता है । कुछ स्थानों में एक निद्िचत परिवार का उद्धरण प्राप्त होता हैं। दानस्तुति में इन्हें अश्वत्थ की दया का दान ग्रहण करने वाला कहा गया है एवं यज्ञ में इनके द्वारा मथुमिश्रित पय का प्रयोग करने का विवरण हैं । अथरव-प्रातिशार्य---भिन्न-भिन्न वेदों के अनेक प्रकार के स्व॒रो के उच्चारण, पदों के क्रम और विच्छेद आदि का निर्णय आाखा के जिन ग्रन्थों द्वारा होता है, उन्हे 'प्राति- जारुष कहते है । अत्यन्त प्राचीन काल में ऋषियों ने वेदाध्ययन के स्व॒रादि का विशेषता से निश्चय करके अपनी अपनी जाखा की परम्परा चलछायी थी। जिस व्यक्ति ने जिस जाखा से वेदपाठ सीखा वह उसी जाखा की वण- परम्परा का सदस्य कहछाया । वाह्मणो की गोंत्र-अवर- णाखा आदि की परम्परा इसी तरह चल पड़ी । बहुत काछ १९ बीतने पर इस भेद को स्मरण रखने के लिए और अपनी- अपनी रीति की रक्षा के लिए प्रातिशाख्य ग्रन्थ बनाये गये । इन्ही प्रातिशाख्यो में शिक्षा और व्याकरण दोनो पाये जाते है। 'अथर्व-प्रातिशारुय' दो मिलते है, इनमें एक 'शौनकीय चतुरध्यायिका' है जिसमें (१) भ्रन्थ का उद्देश्य, परिचय और वृत्ति, (२) स्वर और व्यज्ञन-सयोग, उदात्तादि लक्षण, प्रगृह्य, अक्षर विन्यास, युक्त वर्ण, यम, अभिनिवान, नासिक्य, स्वरभक्ति, स्फोटन, कर्षण और वर्णक्रम, (३) सहिताप्रकरेण, (४) क्रम-निर्णय, (५) पद- निर्णय और (६) स्वाध्याय की आवश्यकता के सम्बन्ध में उपदेण, ये छ विषय बताये जाते है । अथर्ववेद--चारो वेदों के क्रम में अथर्ववेद का नाम सबसे अन्त में आता हैं! यह प्रधानत नौ सस्करणो में पाया जाता हैं--पैप्पलाद, शौनकीय, दामोद, तोतन्रायन, जामरू, ब्रह्मपालाण, कुनखा, देवदर्शी और चरणविद्या | अन्य मत से उन सस्‍्करणो के नाम ये है--पैप्पलाद, आन्ध्र, प्रदात्त, सस्‍्नात, श्नौत, ब्रह्मदावन, शौनक, देवदर्णती और चरणविद्या । इनके अतिरिक्त तैत्तिरीयक नाम के दो प्रकार के भेद देख पडते है, यथा औरब्य और काण्डिकेय । काण्डिकेय भी पाँच भागों में विभक्त है--आपस्तम्ब, बौधायन, सत्यावाची, हिरण्पकेशी और औघधेय । अथर्ववेद की सहिता अर्थात्‌ मन्नभाग में बीस काण्ड है । काण्डो को अछतीस प्रपाठकों में विभक्त किया गया है । इसमें ७६० सूक्त और ६००० मन्त्र है। किसी-किसी जाखा के ग्रन्थ में अनुवाक विभाग भी पाये जाते है । अनुवाको की सख्या ८० हैं । यद्यपि अथववेद का नाम सव वेदो के बाद आता हैं तथापि यह समझना भूल होगी कि यह वेद सबसे पीछे बना । वेदिक साहित्य में अन्यत्र भी आथर्वण' शब्द आया हैं और परुपसूक्त में छन्‍्द गब्द से अथर्ववेद हो अभिष्रेत जान पडता हूँ । कुछ लोगो का कहना हैं कि ऋक्‌ यजु और साम ये हो त्रयी कहलाते हैं और अथर्ववेंद त्रयी से बाहर हैँ । पाव्चात्य विद्वान कहते है कि अथर्ववेद अन्य वेदों से पीछे बना | परन्तु ऋक, यजु और साम तीनो अछूग अन्थ नहीं मल्त्र-रचना की प्रणाली मात्र हैँ। इनसे वेद के तीन सहिता विभागों की सूचना नही होती ! यज्ञ- कार्य को अच्छे प्रकार से चलाने के लिए ही चार सहि- ताओ का विभाग किया गया हैं। ऋग्वेद होता के लिए हैं,




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