भारतीय ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रंथमाला | Jambusamicariu
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
22 MB
कुल पष्ठ :
582
श्रेणी :
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आ॰ ने॰ उपाध्ये - Aa. Ne. Upadhye
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हीरालाल जैन - Heeralal Jain
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्तावना ६
के, या कैवछ के ड' प्रतियोके, तथा बहुन वार केवछ किसी एक ही प्रति, विशेष रूपसे घ मे उपलब्ध
पाठकों ही छे लिया गया है । ववचित् फेवल पे मे उपलब्ध पाठड़ों भी इसी आधारपर स्वीकार किया
गया है, ओर इसी प्रकार कुछ ऐसे भी स्थल है, जहाँ सत्र प्रतियोके पाठोकें भाधारपर उनसे भिन्न शुद्ध
पाठ बनाया गया है । ऐसे समर स्थनोमे यह पाठ परिवर्तन कही _भी एक क्रक्षर, एक मात्रा अथवा
एक अनुस्वारसे अधिक ही किया गया ।
8४२ ना और “ण' के प्रयोगके सम्बन्धमे निम्न प्रणाो अपनायी गयी है :---
(7) आदि 'न की सर्वत्र सुरक्षा ।
(५) मध्यवर्त्ती संयुक्त '्' की सुरक्षा; जैसे सन्नद्ध, भिन्न, आासन्न आदि ।
(70) आदिसे 'त' के पश्चात् न आनेपर 'प्न' का प्रयोग, जैसे निन््ताक्षिय 1
(1ए) भाणानकू, अनल तथा नेह (स्नेह) घब्दोमे 'न' की सुरक्षा ।
(५) अन्य सब्र स्थित्तियोमे मध्यत्र्ती असंयुक्न तथा संयुक्त सु के स्थानपर सर्वत्र णू का प्रयोग
किया गया है। इस स्वंबमे थे प्रतिका साध्प भिन्न है, और जैसा कि ध प्रतिके परिचयमे प्रतिगत
विशेषताओके अन्तर्गत ६ १ भे कहा गया है कि यह प्रति 'नकार बहुला है और इसमे न, न्य, थे, ण्य,
श, ष्ण, स््त और हू के स्थानपर प्रचुरतासे न, ज्ञ, न् का प्रयोग हुआ है, इन प्रयोगोकों स्वीकार
नही किया गया । इसके दो ब्यरण हैं--एक तो यह कि स्वयं इस प्रतिमे भी ये प्रयोग सर्वत्र नियमित रूपमे
नही किये गये हैं, कही हैं, कही नहीं, और दुसरा यह कि जो एक परपराकी प्राचीनतम व प्रामाणिक-
तम उपलब्ध प्रतियाँ ख॑ और ग॒ हैं, उनमे ये प्रयोग नहीं पाये जाते। अत यह साक्ष्य इस अबेली घ॑ प्रति«
का रह जाता है, जिसकी प्रादीनताका कोई निरचय नही है ।
'न' के इन प्रयोगोके सम्बन्धमे यहाँ दो साक्ष्य प्रस्तुत हैं। प्रथम साक्ष्य श्रीच॑द्र कृत अपनंश
'कहकोसु” (कथाकोप, वि० सं० ११२३) का है, जिसमे उपयुवत घ भ्रतिके ठोक समान, परंतु अधिक
नियमित रूपसे शब्दोके आदि एवं मधच्यमे असयुक्त तथा संयुक्त सभो स्थितियोसे ले एवं न्व का
प्रयोग अत्यंत प्रचुरतासे किया गया है। दूसरा साक्षय जिनदत्तसूरि ( बि० सं० ११३२-१२११) विर-
चित अपभ्रंश काव्यवयी. (चर्चेरी, उपदेशरस्तायनरास, कालस्वरूपकुलक ) का है, जो गुर्जरदेशीय थे
भर जिन्होंने वीर कविके प्रस्तुत अपश्रृंश चरित॒काव्यकी रचनाके अधिकसे अधिक एक सौ वर्षोके अंदर
ही अपनी काव्यत्रयीकी रचना की थी । इस अप» काव्यत्रयीमे उपर्युक्त पाँचो स्थितियोमें न, जञ्व एवं न् का
प्रयोग किया गया हैं, जिनके कुछ उदाहरण ये हैं :--तमिथि (च० १) गुणवन्नण (च० २) पृन्रिह्ध
(पुण्य च० ७), मन्तिउ (सानित' च० १४), न्हवण (उप० ४८), निव्विन्दी ( उप० ६७ ), सुन्मड
( काल० १२ ) तथा नेह (क्ाल० १३) | परंतु प्रस्तुत रचनामे इस सपादकने कुछ विशिष्ट स्थितियो-
में ही न, सन का प्रयोग स्वीकार किया है, इसका कारण ऊपर ही लिखा जा चुका है । :
8 ३ सभी प्रतियोमे छूपभग संत्र “व के स्थातपर “व' का प्रयोग मिलता है, इस स्ंधमे मैंने
मूल संस्कृत शब्दके अनुवार ययास्थान ब् व् दोनोका प्रयोग किया है ।
8४, दो स्वरोंके बीचमे 'य' श्रुति एवं 'व” श्रुत्तिके प्रयोगम प्रतियोमे एकरूपता नही है, कही
इनका प्रयोग हुआ है, और कही केवल उद्वृत्त स्वर ही शेष रहा है। इस संबंधमे जहाँ दो या
अधिक प्रतियोमे श्रुतिका प्रयोग हुआ है, उसे स्वीकार किया गया है । 'व' श्रुत्िका प्रयोग उन दो स्वरॉके
१. संपादक : डॉ० हीराछाछ जैन; प्रका० प्राकृत टेक्स्ट सोधायदी अहमदाबाद अन्थ शीघ्र
प्रकाशयमान है । है
२. संपादक : छाकचंद समगवानदास गांधी, प्रका०-गायक्र० ओरि० सिरीज्ञ अन्य क्र० हएडए़ड़एा
बड़ौदा १९२७ ई०
है
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