सम्पादकीय वक्तव्य | Sampadkya Vaktvya

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Sampadkya Vaktvya by शिखरचन्द जैन - Shikhar Chand Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ९७ ) इससे कार्यकारण भाव की सिद्धि हो जाती दे। ऐसे ही दृत्यकमा ओर विकार में भी कार्यकारण भाव लगा लेना चाहिये । आवान्तर प्रश्न का सम्राधान यदि यह जीव रागादि भावों को स्वतंत्र करता है जेसे ज्ञानादि को करता हे तो रागादिको यह जीव क्यों करता हे ? क्या यह उसकी क्रीढ़ा है, या स्वभाव है, या परोपकार के लिये करता है? ये तीनों दी बातें इस्र आत्मा के नहीं बनती हैं। परोपकार तो स्वतन्त्रता में कोई चीज द्वी नहीं है। परोपकार बनता भी नहीं हे। एक शआात्मा दूसरे का कुछ करती नहीं है। क्रीड़ा कौतुक मानने से सिद्ध होता है कि पहले आत्मा दुःखी था, तभी तो रागादि क्रीड़ा सूकी। इससे स्वतंत्रता का घात होता है। राग से सुखी होना चाहिये। सुखी होता नहीं हे--राग को आग कहा है+-- यह राग आग दहे सदा ताते समाम्रत सेइये। चिरभजे विषय कषाय अब तो त्याग निजपद बेइये ॥ अतः आत्मा का क्रोडा कोतुक रूप राग नहीं बनता | यदि रागादि स्वभाव हैं तो इन्हें हेय क्‍यों कह्दे। इन बातों से पता लगता है. कि सस्यग्दृष्टि जीव जब राग को हेय मानता है, राग को आत्मा नहीं मानता है, उसके वोतराग स्वभाव की श्रद्धा हे । स्वानुभव को कर रहा है । फिर राग की कशणिका उस ससय कहां से आ जाती है। यदि द्रव्यकरम को कारण न मानें, और ज्ञान को ज्ञान रखना यही इस आत्माका स्वतंत्रपना कहा जाय तो स्वानुभव के समय पूर्णा स्वतंत्रपना-सिद्धपना मानना अनिवार्य बल्ात्‌ आकर उपस्थित हो -ज्ावेग्र। | |




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