हर्षचरितम | Harshacharitam
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
37 MB
कुल पष्ठ :
506
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १६ )
ही दिनों में यदि गौड़ाबिप को न मार डालूँ तो स्वयं जल कर भस्म हो जाऊँगा !! हषे-
चरित में राज्यवर्धन का व्यक्तित्व सवंधा अकलुषित और स्नेह तथा पराक्रममय देखने
में आता है।
ह्ववर्धन--कहा जा चुका है कि वर्धनवंश के आदि संस्थापक राजा पुष्पभूति को
लक्ष्मी ने प्रसज्ञ होकर वरदान दिया था--तुम्हारे बंश में दरिश्वन्द्र के समान समस्त
द्वीपों का भोक्ता हप नाम का चक्रवतीं जन्म लेगा !! इसलिए यह स्वाभाविक था कि दृ्ष के
समस्त गुण जन्मजात थे । जैसा कि बाण ने हे के यशोवती के गर्भ में आते हो रानी का
वर्णन करते हुए लिखा है--उसके मन में यह दोहद इच्छा हुई कि चार समुद्रों का जरू
एक में मिलाकर स्तान करूँ और समुद्र के बेला-कुंजों में अमण करूँ। नंगी तलवार के
यानी में मुँह देखने की, वीणा अलग हटा कर धनुष की टंकार सुनने की ओर पंजर-
बद्ध केसरियों के देखने की इच्छा हुई। इस प्रकार हष जन्म से दी एक महापुरुष था ।
किसी बआद्यण ने ज्योतिष के अनुसार दृ॒पं के जन्म के समय भविष्यवाणी भी कर दी थी ।
हृष में शेशव काल से हो अपूब रणोत्साह और साहस का आभास मिलने रूगा था | जब
पिता ने अपने सुयोग्य पुत्र राज्यवर्धन को हृणों से भिड़न्त के लिए भेजा तो १४-१५ वर्ष
की अवस्था वाले हृष भी बड़े भाई के साथ चलने के उत्साह का संवरण न कर सके | कुछ
पड़ावों के बाद दी हर्ष का मन आखेट में लग गया तो वे आगे न जाकर हिमालय की
तराइयों में शिकार करने लगे। यहाँ से हर्ष के जीवन का आकस्मिक परिवतंन आरम्भ
हो जाता है। उन्हें पिता जी की बौमारी की खबर मिलती है। शाप्र ही दौड़ पड़े, मार्ग में
कुछ भी नहीं खाया-पिया | इससे उनका अनन्य पितृ-प्रेम व्यक्त होता है।
राजद्वार पर पहुँचते ही उन्होंने उद्विप्त होकर सुषेण नामक वेब्कुमार से पिता जी की
हालत पूछी । सुषेण ने कोई आशाजनक बात न कही तो घबड़ाए हुए पिता जी के पास
पहुँचे । उन्होंने उन्हें रुग्णावस्था में देखा। प्रभाकरवर्धन ने हष को देख कर उठने की
चेष्टा की । उन्होंने बड़ी कठिनता से यह कहा--'हे वत्स, दुबले जान पड़ते हो |? तब भंडि
ने कहा कि हर्ष को भोजन किए हुए तीन दिन हो चुके हैं । यह सुन कर पिता ने गद्गद
'कंठ से कद्दा--तुम्हारे आह्वार ही के बाद मैं पथ्य लूँगा ।! पिता का पुत्र के प्रति खेद
स्वाभाविक है, पर यहाँ स्वाभाविकता की सीमा पर वह ख्ह पहुँच गया है। ग़रुणवान् पुत्र
के प्रति पिता का श्ससे बढ़ कर क्या भाव हो सकता है? हुए की ग़ुणग्रादिता भी
असामान्य थी । जब उन्होंने सुना कि रसायन नामक वेथकुमार ने सम्नाट के प्रति भक्ति
और खेंद से अभिभूत होकर आग में कूद कर जान दे दो तो उनकी प्रतिक्रिया यह हुई कि
उसने कुलपुत्रता धर्म को चमका दिया । स्वयं बाण ने इष की थुणप्राहिता की प्रशंसा
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