ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्यम | Brahmasutrashankarbhashyam Part.1,ed.1

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Brahmasutrashankarbhashyam  Part.1,ed.1 by डॉ. थीवो - Dr. Thivo

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(२) (३) (४) (१) (१) (२) (१) (२) (१) (#$) विधय वैश्वानर शब्दका प्रयोग साधारणारूपसे जाठराप्मि, भौतिकाग्रि और देवताग्मि तीनोंमें हो नेसे तथा अआ्राव्मशब्दका प्रयोग जीवाध्मा-परमात्मा दोनोंभें साधारण होनेसे भी परमात्मामें विशेषरूपसे प्रयोग देखा जाता है इत्यादि सिद्धान्तीका प्रतिसमाधान इसपर फिर पुृबपत्चीका अलिप .. कब बह ब्रन्ततः फिर सिद्धान्तीका समाधान इति प्रथमाध्यायस्य द्वितीय: पाद अथ तृतीयः पादः ( १) अथ झम्याद्धिकरण विषयाः यस्मिन्धौः पृथिवी चान्तरित्षमोतं०” इस श्रुतिमें ग्ुलोक आदियोंका पिरोना सुने जानेसे कोई ग्राघार स्थान प्रतीत होता है, वह आधार स्थानरूप द्वोनेसे सांख्योक्त प्रधान--9कृति होना चाहिये, क्योंकि वह प्रकृति-कारण द्वोनेसे सबका आधार हो सकता हैं, अथवा सबके जीवनाधारसे वायु ही आधार हो, अथवा मोक्ता होनेसे सब भोग्योंका आधार जीतात्मा होना चाहिये इस पृत्रपक्षीका प्रशन--प्रतिवचनका प्रतिपादन स्शब्द अर्थात्‌ आत्मशब्दशअवण होनेसे तथा द्यम्वादि परमात्माम ही पिगेये जानेके संभव होनेंस उपयुक्त श्रुतिमें भ्वादिका आधार परमात्मा ही हो सकता है इत्यादि सिद्धान्तीका प्रतिसमाधान ... ब न हो ( २ ) भूमाधिकरणबिषया! भूमा',बहुत्ववाचक है, “प्राणी वा आशाया भूयान्‌” इस भुतिमे प्राण भूमा प्रतीत द्ोता है, क्योंकि प्राण भ्रपान आदि गनेक दृत्तियां प्राणमे पाई जातो है, इस कारण प्राण भूमा है परमेश्वर भूमा नहीं, क्योंकि उसमें अनेकत्व घटता नहीं, इस प्रक्कार पूवपक्ी के प्रश्नोत्तरका प्रदशन र् संप्रसादमे आगे ग्रर्थात्‌ प्राणसे आगे भी भूमाको उपदेश दिया है, जैसे कि नी आादिमे वाणी आदि वस्वन्तरकों उपदेश दिया है, यदि प्राण भूमा होता हो तो संप्रसाद--प्राणुसे आगे भूमाको उपदेश न किया जाता इत्यादि सिद्धान्तीका प्रतिपरिद्दार ( ३ ) अज्षराधिकरण विषयाः “आड्भार एवेंद्‌ स्वेम”” इत्यादि भ्रुतिमें अच्चर शब्दसे वर्ण कहा जाना उचित है, क्योंकि ओझ्ार भी अद्चर--वर्णा है, यह पृर्तपक्तीका कथन है... , झाकाश पर्यन्तको धारण करनेसे तथा अविनाशी हो नेसे भ्रच॒र शब्द भ्रुतिमें परमाव्माका दी वाचक -हो सकता है, अन्य वर्णका नहीं इत्यादि सिद्धान्तीका समाधान (७) ईक्षतिकर्माघिकरण विषया: । “एतसहे सत्यकाम परे चापर च ब्रह्म” इस *तिमें अपर्षकों ध्यान करनेका उपदेश है, परत्झ्को नहीं, क्‍योंकि श्ुतिमें अपर ब्रक्मको जानने वालोंका देशसे परिमित फलको . प्रात्त होना कहा है । पंजक्षको जानने वाला देशपरिमित फलको प्राप्त करे यह अन्याय है, ... क्योंकि परत्ष सर्वगत होने से उसको आनने वाला भी अपरिमित फलको प्राप्त करेगा १४४ १४६ टै४७ १५१३ १५४ १६ १ १६३ २१६७ १६८:




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