मुक्ति - बोध | Mukti - Bodh

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Mukti - Bodh by जैनेन्द्र कुमार - Jainendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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स्रुश्तिबोष 1 २१ हो भ्रापपे झहुरने को दिसती न करता। “हाँ बताइये सहाय बाडू, प्राप हमें मंझबार में व्यों छोड़ रहे हैं ? “कौन कहता है? हैं तो उस्टे प्रापके दीख बसने की सोच रहा हूँ। 'महीं प्राप प्रोहदे पर रहकर यहां दिस्‍सौ से हमारा जितना मप्ता कर सकते हैं. लृद गहाँ रहकर उठता रहीं कर उकठे। शाप हमारी सज्ाई सोचते हैं पा--हमारी भप्ताई इसमें है कि धाप भोहदा रें।) कहिये, मामौजौ कहने म ? “त्कुर साहब ठौक तो बहते हैं। हमारा ध्यान सेबा पर हो तो अपने मत कौ फोड़कर हमें जनता के मत कौ करनी चाहिए। है कि हहीं ?! “धा्टी मैं कहता हैं मामी जी ठाकुर बोले 'कि सिद्धांत पहसे है पा हम भादमी लोग पहसे है ? छिद्धांत रखता था ठो सेबा-करम में क्यों पड़ता घा | मुग्सी-बैराग में दुनिया से बूर चसे छाते भौर प्रातमप्पान मैं मगन रहते । सेवा को राह पकड़ी है तो बह हो कठिस भारग है भौर झपते साबिरयों को उसमें छोड़ा नही जाता है । वर्षो भाभी जी ? मैं चुप था घौर सुन रहा था। राजी मै कहा 'सुन गया रहे हो कहो जो तुम्हें कइमा हो । मैंमे कहा “राजी तुम यह चाहती हो ? राजभी से दात बचाई, कहा “ठझुर साहब को कहो स जो कहना हो । मुझसे क्या पूछते हो ?ै” “'ुम्द्दी सै पूछता हूं। चाहती हो ठुम दि मैं प्रोहदा सू ? “मेरे घाहने रे चाहने कौ बात बहां है। जिसकी पेवा का इत लिया है रहसे सीधे वर्षो नही पूछते ? रा मं हठौर हुप्ा । बोला हां पहले तुम्हें ही पूछता हूं । तुम चाहती बौध में डाहुर साहर बोले, पाप प्रम्पाय करते हैं, सहाय बाडू | णो कहंगी समम्य जायगा बह प्रपगै लिए कहती हैं। हमने हुए हासत




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