उत्तराध्ययनसूत्र भाग - 1 | Uttaradhyayan Sutra Bhag -1

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Uttaradhyayan Sutra Bhag -1  by आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज - Acharya Shri Hastimalji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विनय श्रुत १३ “ अन्बबाते- उपुझे- गुर के तत पूछे बिन किंध- कुछ भी नतागर-- नबोले, वा-< अथवा, पुद्दो- पूछने पर, अलियं-- असत्य, न वए-- न बोले । कोहं-- क्रोध को, असच्चे-- असत्य-विफल, कुव्बेज्जा-- कर दे । अषियं-- (गुरु के द्वारा कहे गए) अप्रिय वचन को भी, पियं-- प्रिय (हितकारक) मान कर, धारेज्जा-- मन मे धारण करे ॥१४ ॥ भावार्थ- अनुशासन की दृष्टि से विनीत शिष्य का यह कर्त्तव्य है कि वह गुरुजनो के बिना पूछे, बिना प्रयोजन कुछ भी न बोले । तथा उनके द्वारा डाटे-फटकारे जाने पर भी क्रोध न करे । ध्यान रखते हुए भी कदाचित्‌ मन मे क्रोध उत्पन्न हो जाए तो उसे विफल कर दे, अर्थात्‌- ज्ञानबल से क्रोध को शान्त कर ले । कदाचित्‌ गुरुदेव कोई अप्रिय (कठोर) बात भी कह दे तो उसे प्रिय (हितकारक) मान कर हृदय मे धारण करे । (अथवा प्रिय अथवा अप्रिय गुरुवचन के प्रति राग-द्वेष न करता हुआ समभाव से ग्रहण करे )) ॥१४ ॥ आत्म-दमन और पर-दमन का अन्तर एवं फल मूल-- अप्पा चेव दमेयव्वो अप्पा हु खलु दुद्दमो | अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य 1१५ ॥ संस्कृत-छाया-- आत्मा चेव दमितव्य; आत्मैव खलु दुर्दम* । आत्म दान्त* सुखी भवति, अस्मिल्लोके परत्र च ॥१४ ॥ पद्यानुवाद-- आत्मा को वश करना है, कारण आत्मा ही दुर्दम है । इस भव परभव मे सुख पाए, जो दान्त आत्मा सक्षम है ॥१५ ॥ मूल-- वरं मे अप्पा दंतो संजमेण तवेण य । माउहं परेहिं दम्मंतो बंधणेहिं वहेहि य ॥१६ ॥ संस्कृत-छाया-- वर मयात्मा दान्त , सयमेन तपसा च । माऊह परैर्दमित,, बन्धनैर्वघैश्च ॥१६ ॥ पद्यानुवाद-- अपने द्वारा तप सयम से, दमन स्वय का है अच्छा । वध-बन्धन द्वारा परजन से, है दमन नही लगता अच्छा ॥१६ ॥ अन्ववार्थ- अप्पा चेव-- अपनी दुष्ट आत्मा का ही, दमेयव्वो-- दमन करना चाहिए । अपा हु- आत्मा (कषाय-आत्मा और योग-आत्मा) ही, खलु-- वास्तव मे, दुद्ययो-- दुर्दमनीय-दुर्जय है । दंतो-- दमन किया हुआ-दान्त, अप्पा-- आत्मा, अस्सिलोए-- इस लोक में, य-- और, परत्थ-- परलोक मे, सुही-- सुखी, होइ-- होता है ॥१५ ॥ संजमेण तवेण य-- सयम और तप से, मे अप्पा-- मुझे अपनी आत्मा को, दंतो- दमन-वश करना, वरं-- अच्छा है । अहं-- मेरा, परेहिं -- दूसरो के द्वारा, बंधणेहिं-- बन्धनो से, य-- और, वहेहि-- प्रहारो से, दम्मंतो-- दमन किया जाना, मा-- अच्छा नही है ॥१६ ॥




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