संस्कृत - संजीवनी भाग 2 | Sanskrit Sanjivani Bhag-2

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Sanskrit Sanjivani  Bhag-2 by कमलाकांत मिश्र - Kamelakant Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(एप) दुरूहता से रहित है। 11वीं शती के सोड्ढल की उदयपधुन्दरीकथा गद्यबाहुल्य के कारण गद्यकाव्य में गिनी जाती है। इसमें पदसौष्ठव तथा आरोह स्पष्ट प्रतीत होते हैं। 19वीं शती के पूर्वाद्ध में हुए अम्बिकादत्त के गद्यकाव्य शिवयाजविजय में छत्रपति शिवजी का जीवन-वृत्त चित्रित है। इसमें यत्र-तत्र बाण की शैली का अनुकरण है। संपूर्ण गद्यकाव्य राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत है। संस्कृत भाषा में गद्य-रचना कम हुई है फिर भी विभिन्न कालों में कवियों ने गद्यकाव्य की रचना में अपना कौशल प्रदर्शित किया है। आधुनिक काल के गद्यकारों में पण्डिता क्षमाराव (1890-1954 ई.) का नाम अग्रणी है | उन्होंने कथागुक्तावली विचित्रपरिकद्यान्ना इत्यादि कई गद्य-काव्य लिखे हैं। इनके अतिरिक्त मथुरानाथ शास्त्री हषीकेश भट्टाचार्य नवलकिशोर काड्कर आदि के नाम भी आधुनिक गद्यसाहित्य में उल्लेखनीय हैं | संस्कृप्त नाट्यसाहित्य की परंपरा नाटक संस्कृत काव्य का सुन्दरतम रूप माना यया है - काव्येषु नाटकं रम्यम्‌। दर्शकों द्वारा देखे जाने के कारण इसे दृश्यकाव्य भी कहा जाता है। नाट्य की महिमा बतलाते हुए भरतमुनि ने लिखा है कि संसार का ऐसा कोई ज्ञान शिल्प विद्या कला योग और कर्म नहीं है जो इसमें न आता हो। महाकवि कालिदास ने भी कहा है कि नाटक भिन्न-भिन्न रुचि के लोगों के लिए मनोरंजन का एक सामान्य साधन है। इसीलिए नाटक को रांस्कृत काव्य की चरमपरिणति माना जाता है - नाटकान्तं कवित्वम्‌ । सभी प्रकार के काव्यरूपों में नाटक अपेक्षाकृत अधिक जनप्रिय होते हैं क्योंकि इनमें मनोरंजन रस-भावाभिव्यक्ति और विषय की विविधता अधिक पाई जाती है। नाटक की उत्त्पत्ति के बारे में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत्त मिलते हैं। भारतीय परंपरा नाटक को पंचम वेद मानती है | महामुनि भरत के अनुसार ब्रह्मा ने चारों वेदों का ध्यान करके ऋग्वेद से संवाद सामवेद




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