संत - साहित्य | Sant - Sahity
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
101
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
डॉ प्रेम नारायण शुक्ल का जन्म कानपुर जिले की घाटमपुर तहसील के अंतर्गत ओरिया ग्राम में २ अगस्त, सन १९१४ को हुआ था। पांच वर्ष की आयु में माता का निधन हो गया था, पिता जी श्री नन्द किशोर शुक्ल, वैद्य थे। आपकी सम्पूर्ण शिक्षा -दीक्षा कानपुर में ही हुई। सन १९४१ में आगरा विश्वविद्यालय से एम. ए. की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त हुआ थाl इसी वर्ष अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की 'साहित्यरत्न' परीक्षा में भी आपको प्रथम श्रेणी में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त हुआ। श्री गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा चलाये गए अखबार 'प्रताप' से शुक्लजी ने अपने जीवन की शुरुआत एक लेखक के रूप में की l
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सत-समीकत पे [ १६
समस्त वायों मे ब्रह्म का ही मूल उह व्य विद्यमान रहता है। कोई भी बाप ब्रह्म हे
प्रथव नहीं रहता है । जो साधु प्राणी इस साथता मे स्रद्धि प्राप्ठ बर ल््ते हैं द ही
मच्च साथ भाने जाते हैं । इन साधुमा वें” समस्त बम विधान सत्यमय ही
होता है । कम का तत्र्थीय हाना सत्यावश्यक हैं । कम वा तदर्थीय
रूप हो जिम मभीता ते मचाथ कम वहा है और जो कम बघन वा
दारण नहा बनता सात्विक रूप की सस्टि कस्ता हैं। दस रूप मे शद्धा वा विकास
भर जमिमान का विनाथ हो जाता है। श्रद्धा सवलिठि कम वा रुप केवल
भगदतप्रीत्यय हान * वशरण सत माता जाता हैं। इसके विपराव फ्लाफकछ, छाम
हानि-जनमित अथवा प्रवत्ति परव कम अयत मान जाते हैं। कामाप्रभांग से मुक्त
हाकर सल बुद्धि की प्राप्ति व लिए ही १ तत संत! मात्र का उपदेश टिया
जाता है ।
ऐसा व्यक्ति जिसने ससार वी ससारता को समय लिया है और इसके
प्रषयारमक रूप से पृण पदिरत्त होवर उस अपारणीयान-महतामहायात क प्रति
निध्वाम भाव से अपनी समस्त प्रवतिया एवं शिया चक्ति को समग्रत अपित द्रव
उस्ती मं पृणत छय हां थया है वह सत पहवी वे अधिवारी है। ससार मे प्रति पूण
उपशमता! की स्थिति ही सा्विक स्थिति हैं) “सो मं सते साव एवं साधुभाव वा!
उत्म हाता हैं 1
वार्तासाहित्य भ सत अक्त का प्रयोग अबक दार काया है ) नमिधारप्य
में जिन सोनक ऋषि तथा उनके साथ के अटठासां सह ऋषि मुनिधा से हीघ
साक्षीन से विंया था वे सब खत कोटि के ही माणयी थे ।
रस प्रवार सता की परम्परा भारताय साहिय के मूल स्रोत तक पर्चती
है | वदिष' साधता को स्वर दा प्रकार क ब्याध्या-परक प्राय हमारे सामन आंत
हैं। एक ब्राह्मण प्रथ और दूसरे उपतिपतल ग्रय | ब्राह्मण रुख क्म्रकाण्ड को उपाल्यता
प्रतिपादित करत हुय बह्यातुभूति के लिय जप-तप, दतानि अनुप्ठादा का आवयद
बनाते हैं किन्तु उपनिषत ग्रयो के ऋषिया ने भक्ति के स्वरूप वा चानदृएृष्छ छे
आधार से प्राप्त करता चाहा। बहिक भक्ति अपने मूछल्प मे छोड़ प्रात द्वामों
वा सम्रवंय स्थाप्रित करती हुई चला । पर काल्यतर म बराध्याँमिक सीवन ए्द
लीकिति जीवन का सलुलित रुप मिसने छया | भागवत धरम व विज्रास् कम छा
विवचन करते हय विलदवर छा० मु तीराम शर्म वर कघठ है दि आदत दम
हमारी समस म ध्सी प्रकार को परित्यिति म सलभ्र हआ हागा हद इल दा कप
बिक अथ विस्मृत हो चुका था और बलिक पृराहित उसके बाह्य रूप #दार प्ारिड
विधि विधान से है विप्टे हुए थ। * आग चर बर महाभारत डाल के न् इक
से प्रमग आत हैं जहाँ राह्मण अपनी दिसापरर प्रवत्ति बे पाप करना पृ किन
है डा5 सु जीराम दर्मो-मक्ति का विक्ात्त, पप्ठ दर्द हु
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