स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी महाकाव्य भाग - 1 | Swatantryottr Hindi Mahakavya Bhag - 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
462
श्रेणी :
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No Information available about डॉ. देवीप्रसाद गुप्त - Dr. Deviprasad Gupt
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)'मैधावी' सहाकाव्य | १६
प्रवाहित होती रही है और प्राण-तत्त्व चिर्तन होते वे कारण सदैव अवस्थित
रहता है---
“नही था मानव का जब स्वप्त
भूमि पर थे तब भी तो प्राण
अरे. यह प्रबल विवास**
शक्ति का अनुवत्तंव कर नित्य
बदलते रूप और भआावार।॥” (सर्ग ६, पृ० ७५)
सप्तम से वे आस्यान-सवेत वे अनुसार--“ मेधावी ने चकित होवर
देखा मनुष्य का इतिहास कितना अल्प था, किन्तु अपने प्रति प्यार कान्दोलित
ही उठा ९” सृप्टिन्तरचना के विकास के पश्चात् मेधावी वी दृष्टि मानवता के
इतिहास पर गई । एवं दित था, जब आयं-विजय का घोष पहाडो में गूंजता
था और हृपम धण्टध्वनमि पर ऋचाओ वा स्वर भूमता था। भर्म आनतन्द«
विभोर होकर गाते ये--'सत्य की ओर ” ज्योति की ओर'। फिर देवताओं
की सोज और कर्म काण्ड विकसित हुआ और तत्पश्चात् चार्वाव, कपिल, जावाति,
यास््क, मनु, गौवम आदि ते अपनी बात ससार के समक्ष रखी । विन्तु सुख की
क्षाशा से विकल मानव ने सभी वो अनसुना करके विजयोत्कण्ठा में जीवन-
संघर्ष किया | मानव में 'अहबोंघ' इतना प्रवल रहा कि वह स्वयं को ही नहीं
जान पाया--
“रे मैं हैं 'चगेज' कठोर, भरे मैं हूँ 'सैमूर” प्रवीर
“सिवन्दर' 'नीरो! 'बायर' आदि आज मुझ मे हैं उन्मुक्त
मलहजर' या 'नासन्दा' भव्य, वि विश्वम 'तक्षशिला! वा ज्ञात
लेटता है लहरों सा स्फीत, महामेघधा चरणों पर गूँज
आज मैं वाल्मीकि का गीत, आज मैं ४ नाद बा प्राण
पट है ञ्र >८
आज मैं | 'मैं! यह मेरा सत्य, आज 'तु' इह सापेक्ष पुपार
तिश्व सत्ता में मेरी लोन, डिन््तु में जया हूँ।”
(सर्म ७, पृ० ६६)
बधि मे अनुप्तार “मैं या हू फा उत्तर मह है दि मतुष्य को 'जीवन'
की महान् प्रमति को बरेव बनइुर मुझताना नहीं चाहिए। अज्ञायदण ही
मनुष्य प्रति से सपर्ष बरता रहा है । अविश्दामों गा पायय सेने वे हास्ध
ही उसे दिग्धरम हुमा। मृगरटृष्या में हारबर बह अपना बुदित शपाल टोरता
है। गा दी सत्ता वा त्तय ही भाश्वत मय है, ब्तेर रहेगा । बयोदि--
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