सांस्कृतिक चेतना के उन्नायक सेवा धर्म के उपासक | Sanskritik Chetana Ke Unnayak Seva Dharm Ke Upasak
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
452
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)करके सत्य मान लेना कोई प्रशंसा की बात नहीं है ।
इसलिये अपने गुरुओं, धर्मोपदेशकों के प्रति सब प्रकार
से थ्रद्धा-भक्ति रखते हुए भी उनके विचारों को जाँच
करके ग्रहण करना बुरा नहीं कहा जा सकता ।
सहकारी-जीवन की आवश्यकता
बुद्ध जी, पाँच सौ भिक्षुओं के लेकर कीटाग्रिरि
की ओर चले । सारिपुत्र और मौद्गल्यायन भी उनके
साथ थे । जब कीटागिरि निवासी भिक्षुओं ने, जिनमें
अश्वजित और पुनर्वसु प्रमुख थे, यह समाचार सुना तो
उन्होंने परस्पर सलाह की कि सारिपुत्र तथा मौद्गल्यायन
की नीयत ठीक नहीं है--इसलिये ऐसा उपाय किया
जाये कि उनको शयनासन प्राप्त न हो सके | यह
सोचकर उन्होने संघ के समस्त प्रयोजनीय पदार्थों, को
आपस में बॉट लिया । जब बुद्ध संघ के कुछ व्यक्ति
आगे बढ़कर कीटामिरि पहुँचे और वहाँ के भिक्षुओं से
भगवान बुद्ध, सारिपुनत्न तथा मौद्गल्यायन के लिये
शयनांसन की व्यवस्था करने को कहा तो उन्होंने कहा--
* /आवुसो ! यहाँ सांघिक शयनासन जहीं हैं |
हमने 'सभी सांधिक को, सम्पत्ति को बाँट लिया है ।
भगवान का स्वागत है । वे चाहे जिस विहार में
ठहरें, । सारिपुत्र तथा मौद्गल्यायन पायेच्छुक है, हम
उन्हें शयनासन नहीं देंगे 1” 1,
“क्यों आवुसो ! तुमने संघ की शब्यायें बाँट
ली हैं?” है ,
“हाँ, हमने' ऐसा ही (किया है ।४/ «
भिक्षुओ ने जाकर समस्त समाचार भगंवान बुद्ध
की सेवा में निवेदन किया तो उन्होंने ऐसा अनुचित
कर्म करने वाले भिक्षुओं की निन्दा करते “हुए
कहा--“भिक्षुओं ! पाँच वस्तुये बॉटी नहीं जा
सकती--1१) आराम या आराम की वस्तु, (२) विहार
निवास स्थान, (३) मच, पीठ, गद्दी, तकिया (४) लोह
कुंभा ।' (५) बल्ली, बाँस, मूँज ।
; साधु का एक बहुत बड़ा लक्षण अपरिग्रह” भी
है । जो व्यक्ति साधु वेश धारण करके भीः अपनी
सुख-सुविधा के लिये हर तरह से सुख-सामग्री एकत्रित
करता रहे उसे ढोंगी या हरामखोर ही कहना पड़ेगा
क्योकि यदि उसे सुख-सामग्रियों की इतनी लालसा है,
तो गृहस्थ-जीवन को त्याग कर भिक्षु बनने की आवश्यकता
सांस्कृतिक चेतना के उन्नायक १.११
ही क्या थी ? गृहस्थ में अगर वह परिथम करके
घनोपार्जन करता, और उससे इच्छानुसार आराम का
जीवन व्यतीत करता तो उसकी तरफ कोई विशेष ध्यान
ने देता । पर यदि कोई व्यक्ति साधु, बनकर
जीविकोपार्जन के लिये परिश्रम करना बन्द कर दे और
तब भी सुख-सामग्री के संग्रह करने--उन पर अपना
स्वामित्व स्थापित करने की फिकर में लगा रहे तो वह
समाज के आगे एक दूपित उदाहरण उपस्थित करने
का दोषी ही समझा जायेगा ।
साधु आश्रम का एक बड़ा लाभ सहकारी-जीबन
व्यतीत करना है । ग्ृहस्थ, आश्रम मे तो सामाजिक
परिस्थितियों और व्यक्तिगत कारणों से भी मनुष्य को
अपने व्यवहार की अधिकांश वस्तुयें पृथक रखनी पड़ती
हैं, पर साधु के साथ ऐसा कोई बन्धन नहीं होता और
वह चाहे व्यक्तिगत पदार्थों का भार ढोने और उनकी
रक्षा करने के झंझट से सहज में ही छुटकारा पा सकता
है । जैन साधुओं में इस तथ्य पर बहुत अधिक जोर
दिया है और उनके सामने यह आदर्श रखा भया है
कि यदि उनमें सामर्थ हो तो वे अपनी आवश्यक वस्तुओं
की संख्या घटाते-घटाते उनका पूर्ण रूप से अन्त कर
सकते हैं । तव॑ उनके पास तो अन्न का एक दाना
और न एक वालिश्त वस्त्र शेष रहता है और वे अपना
भार सर्वथा प्रकृति पर और समाज पर छोड़कर निश्चित
हो जाते है 1 यदि इस सीमा तक आगे न बढ़ा जाये,
तो भी साधुओ 'का यह कर्त्तत्य-धर्म अवश्य है कि
अपने पास रहने वाली वस्तुओं की संख्या कम से कम
रखें और निवास, शय्या, भोजन-सामग्री जादि की व्यवस्था
सामूहिक रूप से ही करें, । इससे थोड़े पदार्थों मे ही-
बहुत से लोगों का, काम चल सकता. है और साधु
अनेक वस्तुओं का बोझा ढोने और उनकी देख-भाल
करने की चिन्ता से मुक्त रह सकता है । आगे चल
कर समाज के अन्य व्यक्ति भी इस आदर्श को अपना
सकते हैं और अपनी परिस्थितियों तथा सामाजिक स्थिति
को ध्यान में रखते हुए सामूहिक-जीवन मे न्यूनाधिक
भाग ले सकते हैं । पे नि
इसमें सन्देह नहीं कि इस प्रकार का सामूहिक-जीवन
सभ्यता और प्रगति का एक बहुत बड़ा साधन है |
इसमें प्रत्येक पदार्थ की उपयोगिता कई गुनी बढ़ जाती
है और उससे अधिक से अधिक लाभ उठाया जा सकता
है ! जो लोग अकेले बड़े पदार्थों की व्यवस्था कर
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