अभिधान राजेन्द्रः | Shri Abhidan Rajendra Kosh Vol-iv
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
137 MB
कुल पष्ठ :
1456
श्रेणी :
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No Information available about विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी - Vijayrajendra surishwarji
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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दृश प्रतिपसी परिभाष्य न्गवत्सिशान्तानेरूपणम् | जम्बुदप-
गतमनुप्पक्षेत्रस्प चन्द्र यो3घदोनां संब्यानिदृश,, चन्द्राईभद॒पो
यन्न यथा म्रमन्ति तज्रिरूपणमित्यादि एफपश्चाशदृविषयप्ररुप-
णप्रस्तायें मजुष्पत्तेत्रप्ररूपणमित्थम- जबूदीबों लघणो-दृद्ी
व दीवो य घायब्सडे | फालोद हिपुक्खरघर-दीव ही माण
सखेत्त। १॥ एत माएसमक्त, एत्थ विचारीणि जोध्सग-
णाएणि | परनों दौवसमुद्दे, जबछिय जोघ्स जाण ॥२॥ ”
तत्र च- चदा सूरा य गहा, नकखसा तारया य पच घ्मे |
एगे चत्नज्ञाइसिया, घटायारा थिरा झवरे॥ १४७॥ ” तथा
च-“दो चदा दो छूरा, णगफ्पता खन्नु दघति उष्यध्ता। धावत्तर
गहसत, जबुद्दोवे वियारीण ॥ १॥ एग च सयसहस्स, तिरी-
रे
+| स सखलु नये सहस्साइ । णत्र य सता पण्मासा; तारागणको-
१ मिकोडीण ॥२५॥ ” सब चतत् ' जोश्सिय ' शब्दे घिदक्तिव-
लोकनापम । # जिनवचनमेतत् जिनाउ5गर्मे-योगादेव फम-
कुपों भन्ननाति तरूप योगन्य माद्दात्म्मम, तथा च योग-
मार्गाधिक्रारिण , योगनिष्पक्नस्य चिह्दानि । तथादि-'' अ-
लॉल्यमारोग्यमनिष्टरत्व, गनन्ध शुभो सूत्रपुरोपमह्पम् । का-
नि प्रसाद स्वरसोम्यता सच, योगग्रदु ले! प्रथम द्वि श्षिद्धम्
॥ १ ॥ ” इत्यादि तिशद पिपया: “ज्ोग” शब्दे सम्पफ प्रतिपा-
दिता । तथा- गुरुसक्तो अ्रपमक्तों, खतों दतों य निरुयगसोी
य । थौराचिक्तो दढम्नत्तो, घिणयज्ञुतों भचविरक्तों य॥ १॥
जियक्योदों जियनिदों, हियपियमियर्जापरोें मिउ्शसत्यों ।
अप्पादारों अ्प्पो-चद्दी य दफ्खो छुदफ्खिन्नो ॥ ३॥ पंचस-
मिभ्रों तिशुत्तो, उज्छुत्तो सजमे तवे चरण | परिसहसदु
दो मुणी, विसिलशओे जागवाहि क्षि। ३॥ फयसोद्िलोयकऋ
स्मे, निवासपरियाहइएण काछ्षेण | आयारपकप्पा$, लद्दिसिउ
कप्प* जुर्गों ॥ ४ ? धत्यादि तु 'जोगबिटि' शबदे द्रष्टच्य म | #
तथा ज़िनोक ध्यानस्थरुप, ध्यानाध्यानयोधिंचचन, ध्यानस्थेच
मेरा, प्रशस्ताप्रशस्तानि ध्यानानि, ध्यातव्यभेदा, ध्यातु
स्वरूप, सख्ारप्रतिपत्ततया मोक्ढ़े तुध्योन, ध्यानस्थ फन्ता
नि चतयादि 'ऊाण शब्द १६६१ पृष्ठत श्रारकझुय १६७३
पृष्ठपयन्त छप्टध्यम् ।
तथा च-
घ्याता ध्येय तथा ध्यान, क्षय यस्थेकतां गनम् |
मुनरनन्याचसस्थ, तस्य दुख न बिद्यते ॥ १॥
भ्याताउन्तराध्स्मा ध्येयस्तु, परमा$शञ्मा प्रकीतिन ।
ध्यान चंकाअसचित्त , समार्पानिस्तदे कता॥ २॥
जिनेन्छियरुय चीशए्य, प्रशान्तस्य म्पिरा5उत्मन-
छुसा55लनसस््य नाशाप्र-न्यस्तनेंत्रम्य योगिन ॥३॥
रुख्घाह्ममनोत्रत्ते-धारणाधारया ग्यात् ।
प्रसशन्नस्याप्रमक्तस्य, चिदानन्दसु वाब्िदद ॥४॥
सापम्नाज्यमप्रतिहन्द्द-भन्तरे च वितन्वत,
ध्याननां नोपमा लोक, सदेघमनुजेषपि ढ़ि। ५ ॥ ”?
पताइडाध्यानादराइतों रागाउ उदुपह्तचे तास्तु पर्माथेभजा-
नानाउतर्स्वन्ात्रध्पे तत्स्यभावाउ3रोपणेनान्धादप्यन्चतम
कामी मोदते | तत आाह-
डश्य वस्तु पर न पश्याते जगत्यन्ध पुरो3चस्थित,
रग़ान्वस्तु यद्स्ति तत् परिहरन यज्नास्ति तत्पहयति।
कुन्देन्दीचर पूर्ण चन्द्र ऊप्नशश्रीमद्ध वापन्च घा-
नारोप्याउशुचिरशाशिषु प्ियतमागात्रेषु थन्मेदतें ॥
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(६)
यतोः्दद्वचनमेंबास्माफ जीवातुभूत ततस्तदलुझ्कातं 'वचकार'
सितमभ चिथयेयम- ु
» सष्त पणु सतत सत्त य, नव उफ्लरप्माणपयद्धपंच पर्य ।
तिक्तीसफ्लरचूल, खुमिरह नवकफारवरमन ॥ २ ॥
पस्तो पच्रनमुकारों, सब्यपाबष्पणासरणो ।
मगलाग च सब्चेसि, एडम हचहइ मगल ॥ २॥
अरिद्दतनमुक्कारों, जीव माएशइ भवसमुद्दाशो ।
भावेण फीरमाणो, होइ पुणे। बोहिबाजाए॥ ३॥
नमु खूप्त संक्पस्ििस्तरावनिफ्रम्य न बतेने, तन्न सक्केपचद्
#जनन्ताके पे नननत न तने नमन के ने: नर:
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शा शँ का है,
यथा सामायथिकसत्रमू, विस्तरवदू यथा चतुढेश पूर्वाणि, इद हे
पुननेमस्फास्सन्न छुभयातात यनोउघर न सक्तेपो, नापि खिरुतरः। | +६
थ के
को
यदधाय सक्केप म्यात् ततस्तस्मिन साने द्वख्रिथ पपर नमन |
हुकारे! भवेत् लिझसाधुभ्यामिति, परिनिद्ठताहदादीना सि-
रूशब्देन प्रदणत्, ससारिणा तु साधुशब्देनेति । सखारि-
णो दि धरद्देदात्नायोइ5दयों न साधुत्मतिवनन्त ॥ यप्यय वि
सतरः। तद॒प्प्रयुकम। यतो विस्तशतोब्तेकत्रिधो नमस्कार
प्राप्नोत्ति | तथाहि-घरारभाजितसभवा35दिज््यो नामप्राई स्व-
घंतीधकरे+प + तथा भिद्धेभ्पोष्प्येफ््टिप्रिचतुप्पश्चा3शटिस-
मयसिदे+पी याय्दन-तसमयसिद्धेम्प । तथा-तोथक्षिड्रप्र-
त्येकयुद्धाप्पदिविशेषणायि शिप्र+्प घ्ल्यादिभिर्भदेर्षिरतरतोउन-
न्तभेदो नमस्कार धराप्नोति। यतश्येत्र तस्मादसु पक्रुछ्यम-
ऐीहन्य पश्दविधोज्य नमस्कारों न युज्यन शाति॥+ इह चेद प्र-
तिविधानम्-न संफ्वेपो नापि विम्तर ध्त्येतरलिरम, स्वक्तेप
स्यादस्य | फिश्व-घ्दाहदादयों नियमात् साधव , तदूसुण-
नामपि तत्र भाचाव । खाधवस्तु तेप्चदिदारिपु विकल्पनीया'
यतस्ते न सर्वेडप्यदेदादय , कि तहिं, फेचिद्द्वन्त , येपा ती-
थक्रनामकर्मादयों उस्ति, फेलित्तु सामान्यफेबलिन ,अन्ये त्था-
चार्या विशिष्टरत्नाथदेंशका, अपरे तृपाध्याया' सूश्षपाउक्का',
मन््ये त्वेतदविशिएण सामान्यसाधव एच शिक्षकाइइयो, न
पुनरद्ददादय। | तदेख सावूनामहंदादिपु व्यनिचाराद यकप्षम-
स्करणेअपि नादेदाध्निमस्कारसाध्यस्थ विशिए्टस्थ फश्नलि-
द्वि | नतब्व सकपेण द्विव्रिधनमस्फरणमयुक्तमेव, अव्याप-
फत्थादिति | तस्मात् सक्लेपतोडपि पञ्चविध एवं नमस्कारो,
नतु द्विवेध , अ्रव्यापकत्वाच | घिस्तरनस्तु नमस्कचारो न
विश्वीयते, अशकक््यत्वात् 1# नन्नु जिनव चनस्य मिथ्याद्शैन सस्तू
दमयत्वेडपि प्रामाएयमन्युवगच्णदूमिनेयनिकुरम्वोपन्यास कू-
तस्तप्न कि नाम नयत्वम् | उच्यते-बहुधा चम्तुन' पयो
याणा सभवाद् विचक्धितपर्यायेण यज्ञयनमाधिगमन परिच्शे-
ढोउसों नयो नाम | तथाहदि-इद द्वि जिनमते सर्वे वसुत्वनन्त-
भ्रमो४5ल््मकतय सक्रीणस्वसएवम्तिति तत्परिच्छेदकरेन प्रमा-
शेनपपि तवेत जवितव्यमित्यलक्कीणेप्रतिनियतघरममप्रकारक-
व्यवह्ारसिद्धये नयानामेत्र सामथ्यम्।|त्तकम-
४ निःशेपाशह्लुर्षा प्रसाणवे पर्यीभुण समासेझ'रा,
बचम्तूना नियताशकल्पनपरा खपत श्लुतता55सड़ि न.
ओडाम्नीन््यपरायणास्तद्परे चाशे सवेयुनेया-
श्रदे ऋान्तकलद्डूपद्फक लुपास्ते स्युस्तदा छवेया ॥ १॥??
नयोपपत्याठ यस्तु ' णय ? छाडदे १७४३ पूछत आरज्ष्य १६०१
पृछ्ठपयन्त विस्तरतो निरूपिता' | नद्धु युक्त जिनवचनमनाचरतों
नियप्ताद् निरया$अद्िपु पातों स्वाति, तत्र कीडर्शी यातनाष्छुचूु-
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