मंगल स्तोत्र | Mangal Stotra

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Mangal Stotra by चैनरूप भूरा - Chainarup Bhoora

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भक्तायर स्तोत्र - 19 धब्बो से युक्त चन्द्र मण्डल| जो दिन मे ढाक के पीले पत्तो के समान कातिहीन बन जाता है। सम्पूर्ण मडल शशाह् कला कलाप, शुघ्रा गुणास्‌ त्रिभुवनं तव लघयन्ति। ये सम्रितास्‌ त्रि जगदीश्वर। नाथमेकं, कस्तान्निवारयति सचरतोा यथेष्टम्‌ | [14 || शब्दार्थ-त्रिजगदीश्वर--हे तीन लोक के ईश्वर, सम्पूर्ण मण्डल शशांक कला कलाप-पूर्णचन्द्र मण्डल की कलाओ के सदृश, शुप्ना ८ अत्यन्त उज्ज्वल, तव गुणा:-आपके गुण, त्रिमुवन लघयति-तीन लोक को लाघ रहे हैं, ये एक-जिन्होने एक, नाथ॑ संश्रिता>--स्वामी का आश्रय लिया, तान्‌ यथेष्ट-उन्हे स्वेच्छानुसार, सचरत-विचरण करते क -कोन, निवारयति-- रोक सकता हैं? भावार्थ-हे त्रिलोक स्वामिन्‌! पूर्णिमा की चन्द्रकला के समान आपके निर्मल कातिमान्‌ उज्ज्वल गुण तीन लोक मे सर्वत्र फैले हुए है। उन गुणो ने एकमात्र आपकी शरण ली है, वे इस सृष्टि मे स्वेच्छानुसार भ्रमण करे तो उन्हे कौन रोक सकता है? अर्थात्‌ कोई नहीं। चित्र किमत्र यदि ते बत्रिदशाद्भ-नाभिर, नीत मनागपि मनो न विकार मार्गम्‌ | कल्पान्त काल मरुता चलिताचलेन, कि मन्दराद्रि शिखर चलित कदाचित्‌? | |45 || शब्दार्थ-यदि-अगर, ते मन तुम्हारा मन, त्रिदशाग नाभि अप्सराओ के द्वारा, मनाक्‌ अपि-किचित भी, विकार मार्ग-विकार भाव को, न नीत-प्राप्त नही हुआ, अन्न कि> इसमे क्या, चित्र--आश्चर्य, कल्पान्त काल-प्रलय काल के, मरुता-पवन के, चलिताचलेन-चलने से अचलायमान, कि मदाराद्रि शिखरं-क्या सुमेरु गिरि, कदाचितृ-कभी, चलितं-चलायमान हुआ | भावार्थ-हे कामजयी वीतराग प्रभो! अप्सराओ ने काम वासना को उत्तेजित करने वाले हाव भाव से आपको विचलित करने का अथक प्रयास किया परन्तु आप, अपने लक्ष्य से विचलित नही हुए तो इसमे क्या आश्चर्य हैं? पर्वती को चलायमान करने वाले प्रलयकाल के प्रचण्ड वायु वेग से क्‍या सुमरु कभी चलायमान हुआ? नही।




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