सोहन काव्य-कथा मंजरी [भाग - 9] | Sohan Kvya Katha Manjari [ Part - 9 ]
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
116
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)चन्द्रसेतन को नूप ने! पास बुलाया ।
बड़े प्यार से उस को सब समझाया ।
जजेर हो गई बेटे मेरी काया।
संन्यास लेने का समय हमारा श्राया।
समय श्रा गया समझो बात हमारी ।
कर्मों की रेखा टरे कभी नहीं दारी 1 छ८ ॥।
राजा बनकर मुक्ति मुझे दिलाशप्नो।
सुन्दर राज कुमारी को तुम पाश्रो।
राजमहिषी लाकर उसे बनाशो।
प्रजा सेवा में श्रपत्ता ध्यान लगापग्नो।
तेरे हित में कहीं बात हितकारी।
कर्मों की रेखा टरे कभी नहीं ढारी।॥| ७९ ॥
क्यों पहुंचाते पीड़ श्राप यह कहके ।
खुश हूं मैं तो छत्र छाया में रह के |
पागल मन ही राज पाने को बहुके ।
बत के चिरेया मेरा मन तो चहके ।
कंठों से निकले मेरे तो किलकारी |
कर्मों की रेखा टरे कभी नहीं ढारी ॥ ८० ।।
मैं मौज मजे में समय बिताना चाहूं।
सेवा करके ही जीवन सफल बनाऊँ।
में भंफट में कभी न पड़ना चाहूं।
निज को पिजरे का पंछी नहीं बनाऊं।
किया निवेदन मैंने सोच विचारी
कर्मों कौ रेखा टरे कभी नहीं दारी «१॥
कल राज ज्योतिषी को मैंने बुलवाया | ह
राज तिलक का शुभ मूहर्त निकलाया ।
महामंत्री को भी यहां बताया।
नाम तुम्हारा सुनकर वह हर्षाया ।
शुरू हो गई श्रबवः उसकी तैयारी।
कर्मों की रेखा टरे कभी नहीं दारी 1 ८२ ।।
तात हे सामने कवर बोल ना पाया।
प्रांखों के भ्रागे घना अंधेरा छाया।
चन्द्रमुखी को नहीं नगर में लाया।
वत में जाकर त्यागू प्रपनी काया।
कव तक बैठा रहूं यहां मन मारी।
कर्मों की रेखा टरे कभी नहीं टारी 1 ८३ 11
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