संतवाणी [ढाई हजार अनमोल बोल ] | Sant Vani [ Dhai Hajaar Anamol Bol ]

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Sant Vani [ Dhai Hajaar Anamol Bol ] by हनुमान प्रसाद पोद्दार - Hanuman Prasad Poddar

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He was great saint.He was co-founder Of GEETAPRESS Gorakhpur. Once He got Darshan of a Himalayan saint, who directed him to re stablish vadik sahitya. From that day he worked towards stablish Geeta press.
He was real vaishnava ,Great devoty of Sri Radha Krishna.

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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संत-वाणी २७ १८६-प्रमदासज्भसे वरावर वचना चाहिये । जो निरभिमान होकर निःसज्भ हो गया हो, वही अखण्ड एकान्त-सेवत्त कर सकता है । १७६०-सत्री, धन और प्रतिष्ठा चिरंजीव-पद-प्राप्तिके साधनमें तीन महान्‌ विघ्त हैं । १६१-सच्चा अनुताप और शुद्ध सात्त्विक वेराग्य यदि न हो तो श्रीकृष्णपद प्राप्त करनेकी आशा करना केवल अज्ञान है। १६२-सुनो, मेरा पागल प्रेम ऐसा है कि सुन्दर श्याम श्रीराम ही मेरे अद्वितीय ब्रह्म हैं और कुछ मुझे नहीं मालूम । रामके विना जो ब्रह्मज्ञान है हनुमानजी गरजकर कहते हैं कि उसकी हमें कोई जरूरत नहीं । हमारा ब्रह्म तो राम है । १६३-जो मोल लेकर गंदी मदिरा पान करता है, वही उसके नशेमें चूर होकर नाचता गाता है, तब जिसने भगवत्प्रेमकी दिव्य मदिराका सेवन किया हो, वह कंसे चुपचाप बैठ सकता है ? १६४-भगवान्‌के चरणोंमें अपरोक्ष स्थिति हो जाय तो वहाँ क्षणाधेमें होनेवाली प्राप्तिके सामने त्रिभुवन-विभव-सम्पत्ति भी भक्‍तके लिये तृणके समान है । १४ ५-याचना किये बिना यदृच्छासे जो कुछ मिले उसे साधक मद्भलमय प्रभुका महाप्रसाद समझकर स्वानन्दसे भोग लगावे । १६६-दारा-सुत, गृह, प्राण सब भगवान्‌को अपँण कर देना चाहिये। यह पूर्ण भागवत धर्म है। मुख्यतः: इसीका नाम भजन है। १६७-साधु-संतोंसे मेत्री करो, सबसे पुराना परिचय (प्रेम) रक्‍्खो, सवके श्रेष्ठ सखा वनो, सबके साथ समान रहो ।




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