सांख्यतत्त्व - कौमुदी | Sankhyatattva - Kaumudi

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Sankhyatattva - Kaumudi  by डॉ॰ गजानन शास्त्री - Dr. Gajanan Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(६ ६ ) इ्वेताइवतर उपनिषद्‌ को तो सांख्योपनिषद्‌ ही कहा जाता है। इसमें सांख्य के विचार और सांख्य के पदार्थ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते है। इस *उपनिषत्‌ में व्यक्त', 'अव्यक्त', 'ज्ञ! पदों का भी प्रयोग किया गया है तथा सांख्य और कपिल पद का भी प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। इसी आशय का महाभारत के वनपव में भी अर्ध इलोक उल्लिखित किया उपलब्ध होता है, जो ससांख्यकारिका के गीडपादशभाष्य में संपूर्णझूप से दिया गया है। उसी प्रकार प्रधान-प्रकृति, गुण शब्दों का प्रयोग भी यहां मिलता है। इसी उपनिषद्‌ के एक मंत्र मे सांख्य के पदार्थों की संख्या तक बताई है। उस मंत्र मे त्रिवृत्‌ शब्द गुणत्रय का द्योतक है, षोडशान्तपद षोडशविकार परक है और शतार्धार पद पचास भेदवाले प्रत्ययसर्ग को सूचित करता है। इन मंत्रों की सांख्यपरकता पाश्चात्य विद्वाचु मिस्टर कीथः को सम्मत नही है। उनका कहना है कि ब्राह्मणग्रन्थों में प्रायशः संख्या-प्रयोग हुआ है, अतः उसे सांख्यीयतत्त्वसंख्घापरक समझ लेता उचित नहीं है! । किन्तु मिस्टर कीथ का उक्त कथन युक्तिसंगत प्रतीत नहीं हो रहा है, क्योंकि यदि वह सांख्यीयसंख्यापरक नहीं है तो किपरक है ? उसे वे नहीं बता पा रहे हैं। अतः सोपपत्तिक अर्थ का त्याग करना उचित नहीं है । “मायां तु प्रकृति विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्‌” ( इवे० उ० ४1१० ] आदि मंत्रों में सांख्य के पारिभाषिक शब्दों का स्पष्ठ रूप से ही उल्लेख है। उक्त मन्त्र से वेदान्त मत का भी पोषण हो जाता है, जिससे मिस्टर याकोबी* सांख्य-योग की उत्पत्ति में अपना अटवाललूपच्चू विचार रखते है। अन्य” अनेक उपनियदों में तो सत्त्व', 'रजः, 'तम! त्वा देव मुच्यते सर्वपाशे-” [ खे० उ० १८ ] 'तत्कारण साख्ययोगाधिगम्यस्‌” ऋषि प्रसूतं कपिल यस्तमग्रेः [ शर्वे० उ० ५२ ] २. “अगो जन्तुरनोगोध्यमात्मन- सुखदु.खयोः ।” [ म० भार० व० प० ३०८८ ] ३. [ सा० कारि० 5१ दो गौटपादसाप्य में द्रष्टव्य ] ४. क्षरन्प्रधानन्‌” [ श्रे० उ० १1१० ]. मायान्तु प्रकृति विद्यात्‌” [ श्े० उ० ४१७ ] “देवात्मशक्ति सम्मपैनिंगृद्ाम्‌” [ बे० उ० १॥३ ] तनेदनेरि >> न्तें ता ्ः विंग ;#> त्यरा थम ४ पक्ष 5, ५. “तनकनेर्सि भिवृत पोरभान्त शतार्धारं विंगनिपत्यरातिः । अषप्टकेः पटनिविश्वरूपकपा रे १७ ध्ि र मिर न गज थ्रिमामभेत दिनिमित्तेदमोहटम्‌” [ ख० ड० ४ ] ६. #51जरी9७ क९चटा), 7, 11 ] ७. “प्राचीनतस योर प्राचीन उपनिष्दों के मध्यवत्तों दाल में सास्यवोग की उत्पत्ति हुई है [ 17%, 0667 180, १, 2] | ८ पी ण इश्मेटमास, तलख्यात्तसरंपेरितं दिपमल प्रयात्येतर रजसों रूप सद्रजः एजरेद पिपमल प्रपत्देत तगसो रूएं ततगाः सास्वीरियं वमसः सम्प्राससत्येनई छाउन्य एप गससपनेपेरित मल्तच्याद सम्पासपद सॉड्योट्य येतनमानः प्रदिपरप सिद्चज: संछरूूर1६उत- हें «६ 1 5 आई की कि 5 ड थ| | ४ हू हे है न डी ६ सदाण उ० ४५ | अक 5चअ टी पक+-यी + के कयननजणान- ७००2७ क हक ब्येसाच्यन्ने के डे नशा ६ चप्पल, पागल अूश््ख्यनाच्यन्ल' ४ साझ० 29 इ।य ) बजा द््ास्क डे ०.-९३-०+रड>क कक के च्चू स्षज थे एशणदोेशम चार: मारा? |॥॒ ध्र्रक् सन्नेर० डेट । 1 >




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