समस्त विश्व को भारत के अजस्त्र अनुदान | Samast Vishw Ko Bharat Ke Azastra Anudan

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Samast Vishw Ko Bharat Ke Azastra Anudan by ब्रह्मवर्चस - Brahmvarchas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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समाज की आवश्यकताओं की शिक्षा, सुरक्षा, सम्पत्ति और श्रमनिष्ठा प्रमुख है। इन्हीं के आधार पर, सामूहिक प्रगति एवं सामाजिक सुब्यवस्था को ध्यान में रखकर हर व्यक्ति अपना व्यवसाय एवं कार्यक्रम निर्धारित करे । यह कार्य रुचि और योग्यता के आधार पर हो अपनाये जा सकते हैं। शिक्षा प्रयोजनों में संलग्न व्यक्तियों को ब्राह्मण, सुरक्षा के लिए कटिबद्ध शासकीय कार्यकर्ता क्षत्रिय, कृषि पशुपालन, शिल्प उद्योगों में निरत वैश्य और समाज को शारीरिक म्रानसिक श्रम का सीधा लाभ देने वाले श्रमिक वर्ग को शूद्र कहा गया है। यह विशुद्ध कार्य विभाजन है और इसमें रुचि एवं योग्यता को, आधार माना गया हैं, इसमें ऊँच-नौच की कोई बात नहीं है। वंश परम्परा में व्यवसाय पद्धति जुड़ी रहने से उसमें जन्मजात प्रवीणता उत्पन्न होती है, इसलिए यह सुविधाजनक माना गया है कि वंश परम्परा के साथ-साथ व्यवसाय परम्परा भी चलती रहे पर यह कोई बंधन या प्रतिबंध नही है। गुण कर्म स्वभाव के आधार पर वर्ण-व्यवस्था बनती है अस्तु उसमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी होते रहते हैं। एक जाति या व्यक्ति अपनी कार्य पद्धति बदलकर दूसरी जाति का बन सकता है। ह समाज व्यवस्था के लिए कार्य विभाजन की तरह जीवन अवधि के भी भारतीय सांस्कृतिक चार विभाजन प्रस्तुत करती है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास इनमें से दो व्यक्तिगत उत्कर्ष के लिए और दो सामाजिक विकास के लिए निर्धारित हैं। आधा जीवन शक्ति संवर्धन और भौतिक उत्पादन में लगाना चाहिए। शारीरिक और मानसिक क्षमता के विकास कौ पच्चीस वर्ष की आयु को ब्रह्मचर्य कहते हैं। पच्चीस से पचास वर्ष की आयु में भौतिक उत्पादन बढ़ाकर समृद्धि का अभिवर्धन करना. चाहिए। मल [सार इसी आयु मे विवाह किया जा सकता है और पीढ़ियों को सुसंस्कृत बनाने के साधन हों तो सीमित सन्तानोत्पादन की भी छूट है। गृहस्थ इसी अवधि का नाम है। यह व्यक्तिगत जीवन में संलग्न आयुष्य का पूर्वार्ध हुआ। जब लोग शततायु होते थे तब यह विभाजन २५+२५०५० का था। जीवन का आधा भाग उत्तरार्ध विशुद्ध रूप से लोक मंगल में नियोजित रखे जाने की शाख्रमर्यादा समस्त विश्व . . . . - - अजस्र अनुदान १.१३ है। ढलती आयु में वानप्रस्थ धारण किया जाय और घर परिवार को आवश्यक मार्गदर्शन सहयोग देते हुए अधिकांश समय समाज सेवा में लगाया जाना चाहिए। इसी मान्यता के आधार पर प्राचीन काल मे सुयोग्य, सुशिक्षित, अनुभवी एवं भावना सम्पन लोकसेवी बिना किसी वेतन पारिश्रमिक के मिलते थे और समाज कल्याण के असंख्यों क्रिया-कलाप इस वर्ग द्वारा सुसंचालित किये जाते थे। समुनत समाज के लिए यह वहुत बड़ा आधार है कि उसे सुयोग्य और सस्ते समाज सेवी प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हो! बानप्रस्थ परम्परा ने ही भारत की आन्तरिक महानता बढ़ाई थी और इसी कारण समस्त विश्व मे यहाँ के महामामवों की सेवा सहायता उपलब्ध हो सकती थी। शरीर अधिक थक जाने पर परिव्रज्या का, पर्यटन का कार्य कठिन पड़ता है और बादलों की तरह सुदूर क्षेत्रों मे जाकर सेवा साधना के विभिन्‍न कार्यक्रमो को चलाया जा सकना संभव नही होता, तब एक स्थान पर कुटी आश्रम बनाकर साधना-शिक्षा, स्वाध्याय आदि के लिए विद्यालय, चिकित्सालय, ग्रन्थरचना, योगसाधना, सत्संग, परामर्श जैसे कार्यों को हाथ मे लिया जाता है। संक्षेप में परिव्ाजऊ लोकसेवियों को वानप्रस्थ एवम्‌ ब्राह्णण कहा जाता है और आश्रमवासी साधुओं को संन्यासी आश्रम अधिष्ठाता सन्तमहन्त की क़ार्यपद्धति अपनानी होती है। न] कहना न होगा कि वानप्रस्थ और संन्यास की जीवन अवधि में देश के अत्यन्त महत्वपूर्ण व्यक्तित्व अपनी समूची सामर्थ्य को मानवी उत्कर्ष में नियोजित करते थे तो उसका परिणाम देव समाज के रूप॑ मे, स्वर्गीय परिस्थितियो के रूप में प्रस्तुत होना ही चाहिए। इन लोकसेवियों के निर्वाह के लिए कहीं “से वेतन आदि का प्रबंध नहीं था। घर-घर मे अतिथि सत्कार की धर्म परम्पस प्रचलित थी। साधु ब्राह्मणो को भोजन, यस्त्र जैसे निर्वाह साधन भ्रस्तुत करना प्रत्येक सदगृहस्थ अपना परम पवित्र कर्तव्य मानता था, और उसका अवसर मिलने पर अपने सौभाग्य को सराहता था। सम्पन्न लोग इन लोकसेवियों के लिए धर्मशाला एवम्‌ देवालयो में विश्वास स्थान बनाते थे। अन क्षेत्र आदि की विशेष व्यवस्था करते थे। ब्रह्म भोज की, साधु बाह्मणो को समय-समय यर दान देने की परम्परा




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