श्री दशवै कालिक सूत्रम | Shree Dashavea Kalik Sutram

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Shree Dashavea Kalik Sutram by आत्माराम जी महाराज - Aatnaram Ji Maharajशय्यभव सूरि - Shyyabhav Suri

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शय्यभव सूरि - Shyyabhav Suri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राणियों का (अभिक्कत) सामने आना, (पडिक्कत) पीछे सरकना, (सकुचिय) शरीर को सकुचित कर लेना, (पसारिय) शरीर को फैलाना, (रुय) शब्द का उच्चारण करना, (भत) इधर-उधर भ्रमण करना, (तसिय) भयभीत होना, (पलाइय) डर से भागना, (आगइ-गई) आगति और गति ([विन्नाया) आदि क्रियाएँ लोक मे विज्ञात है अर्थात्‌ कई त्रस प्राणियों की ये क्रियाएँ स्पष्ट रूप से जानी जाती है, देखी जाती है। (य) और (जे) जो (कीडपयगा) कीडे और पतगिये (य) और (जा) जो (कुथुपिवीलिया) कुथवा और चीटिया है वे (सब्वे) सब (बेइदिया) द्वीन्द्रिय, (सब्वे) सब (तेइदिया) त्रीद्रिय (सब्वे) सब (चउरिंदिया) चतुरिन्द्रिय (सब्वे) सब (पचिदिया) पचेन्द्रिय, (सब्बे) सब (तिरिक्खजोणिया) तिर्यच, (सब्वे) सब (नेरइया) नरक के जीव, (सव्वे) सब (मणुआ) मनुष्य, (सब्वे) सब (देवा) देव, (सब्वे) सब (पाणा) प्राणी (परमाहम्मिया) परम सुख के अभिलाषी है। (एसो) यह (खलु) निश्चय करके (छट्ठो) छठा (जीवनिकाओ) जीव -निकाय- जीवो का समूह (तस्सकाओत्ति) त्रसकाय (पवुच्चइ) कहा जाता है। भावार्थ- सभी प्राणी सुख को चाहते है। अत किसी की हिसा न करनी चाहिए | इच्चेसि छण्ह॑ जीवनिकायाणं नेव सयं दर्ड समारभिज्जा, नेवन्नेहि दंड समारंभाविज्जा, दंड समारभंतेडवि अन्ने न समणुजाणिज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेण मणेण वायाए काएण न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्न॑ न समणुजाणामि तरस भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। अन्वयार्थ- मुनि (इच्चेसि) इन (छण्ह) छ (जीवनिकायाण) जीवनिकायो के (दड) हिसा रूप दड का (सय) स्वय (नेव समारभिज्जा) आरम्भ न करे अर्थात्‌ हिसा न करे, (अन्नेहि) दूसरों से (दड) हिसा रूप दड का (नेव समारभाविज्जा) आरम्भ न करावे और (दड) हिसा रूप दड का (समारमते) आरम्भ करते हुए (अन्नेडवि) 19




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