नैशधीयचरिन्त महाकाव्यम | Naisdheey Charitam Mahakavayam
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
31 MB
कुल पष्ठ :
376
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)गरम,
मेमिका प्र
स्थान न देखकर उनके बागीचेसे रहकर अवसर ताकता रहता है। अन्तमे नल
और दमयन्तीकी प्रथम मिलनरात्रिका मनोहर वर्णन करके ग्रन्थ समाप्त
होता है ।
नेलोपास्यानके अनुसार माई पुष्करके साथ जूएमे राज्य गँवाकर नलूका
पर्यटन आदि वृत्तान्त न होनेसे यह महाकाव्य अध्रा-सा प्रतीत होता है।
अतारव कहा जाता है कि इसमें पहले ६० सर्ग थे, परन्तु अभी २२ सर्ग मात्र
उपकृब्ध हैं। इसमें रस, अलूडू॥र, ध्वनि, गुण, रीति आदि अलछड्धार शास्त्रके
प्रन्यक विषयसे पूर्ण मौलिकता परिलक्षित होती है। कालिदासकी रचनाओंको
छाइकर पूववर्ती समस्त कव्रियोंकी रचनाएँ इसके सामने हतप्रम हो गई है ।
प्रीहयंत आलूडारिकोके नियमका भी ([र्णहूपसे पालन नही किया है, वर्णनोमे
उनकी विलक्षण कल्पताओकी उठानने सब सीमाका अतिक्रमण कर दिया हैं। श्री-
हपने अलशुार आदिके प्रयोगोमे दर्शन और व्याकरणसे उदाहरण लेकर अपनी
अनोखी सृश्नवूझ्कका परिचय दिया है। सस्कृतमापामे श्रीहृषंका असाधारण अधिकार
देखा जाता है। “नंषध विद्दोषधम्” यह प्रसिद्ध जनश्षुति है। नेषधकों शास्त्रकाव्य
कहनेमे कुछ सी अत्युक्ति नहीं प्रतीत होती है । अलझ्धारोंमे उन्होंने अतिशयोक्ति,
भपहूनुति, अर्थान्तरन्यास, उपमा, व्यतिरेक, रूपक आदिमे अपना बेजोड कौशल
प्रदशित किया है। यसक आदि ध्व्दाउरूद्भारके प्रयोगमें मी वे अपनी सानी नहीं
रखते है | हाँ, मारति और माधघके समान एकाक्षर और द्धक्ष रवाले इलोकोका
प्रदर्शन कर श्रीहर्षनेी अपना काव्यशिल्प नहीं दरसाया है, वस्तुत: यह भूषण है,
दूषण नहीं है। नैषधीयचरितके १३वें सर्गके ३४वें इछोकर्म उन्होंने पश्चनछीका
वर्णन करनेमे अद्भुत और असाधारण वैदुष्य दिखाया है। नैषधोयचरितमे प्रसाद-
गुण और बैँदर्भी रीतिका पर्याप्त प्रदर्शन होनेपर भी माधुय्य और ओजोगुण और
पा खाली, आदि रीतिकी प्रचुरता उपलक्षित होती है। इस काव्यरत्नके रसास्वा-
इनके लिए कठित परिश्रम और परिमाजित बुद्धि अपेक्षित है इसमें दो मत नहीं ।
अब नैषधीयचरितके कुछ असाधारणइलोकोंका प्रदर्शन कर इस प्रसद्भका
उपसंहार किया जाता है---
नछके प्रताप और यदाका कसा मनोहुर वर्णन है---
“तदोजसस्तशददास: स्थिताविमो वृधेति खित्ते कुरुते यदा यदा ।
तनोति भानो: परिवेशकेतवालदा विधि: कुण्डलनां विधोरपि ॥ १-१४ ।
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