दादा श्री जिनकुशलसूरि | Dada Shri Jinakushalasuri

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Dada Shri Jinakushalasuri by अगरचंद नाहटा - Agarchand Nahta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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द्वदा श्री जिनकुशलसूरि 1 ह घर्मापदेश श्रवण कर करमण कुमार संसारसे विरक्‍्त हो गये । उन्होंने उसी क्षण अपना समग्र जीचन संयमाराधंन में व्यतीत 'ऋरना निश्चित कर लिया | घर आकर मातेश्वरी जयतश्री को सविनग्र विज्ञप्ति की “गुरुदेव के सदुपदेश से प्रतिबोध पाकर संयम मार्ग ग्रहण करने की मेरी उत्कट अभिछापा है अत: माता जी! कपा करके मुमे अनुमति प्रदान करें !” छाड़ले पुत्र के इन बचनों ने माता के हृदय को मार्मिक आधात पहुँचाया। ने कहने लगीं “वत्स ? तुम्दारे वचन बड़े प्रिय और मनोहर हैं, 'पर मेरे एकमात्र तुम ही आधार हो ! तुम्हारे बिना मेरा जीवन 'अखार दे; फिर तुम तो अभी निरे बालक हो, .चारित्र पालन करनी तुम्हारे ऐसे सुकरमार के लिए अति कठिन दै, संयम मार्ग में पद-पद पर अनेकों विन्न, परिसह आते हैं। अतएव अभी “इस विचार को घोड़कर सुख से रहो ! तुम से मुझे बड़ी बड़ी “आशाएं ढें। किसी सुरक्षणा कन्या को पुत्रवधू के रूप में “देखने का मेरा भव्य मनोरथ पूर्ण करो |”? माता के मोहयुक्त बचनों .फो श्रवण कर कर्मणकुमार ने “अपना हृढ़ निश्चय इन शब्दों में प्रकट कर दिया इस संसारमें कोई किसी का नहीं हे, अनेक बार इन कुटुम्बिक सम्बन्धों को 'प्राप्त कर आत्मोननति के स्थान पर संसार वृद्धि ही की दे अतः 'समियागाके समर्रतिह, शीतलदेव आदि आपके भक्त थे। आपने सम्राट बुतुबुद्दीन को अपने सदगुणों से चमत्कृत किया था । पद्टावलियों में खनका 'कलिकाल केवली” विझद लिखा है।...




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