न्यायविनिश्चयविवरण भाग 2 | Nyayvinishchayvivrna Bhag 2
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
532
श्रेणी :
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आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय - Aadinath Neminath Upadhyay
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हीरालाल जैन - Heeralal Jain
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)डक न्यायविनिश्चयविवरण
विषयोंमे द्वोती दे भर शास्कार एक ही धम्मुको परस्परबिरोधों रुपछे भी फ्थन यर जाते 84 मत
येसे स्थरमे इस हेर्घामासकी सम्सायना हैं। प्थक्एड्देवने इसका विरद्धद्ेस्थाभासमे अन्तर्भाव किया।
जो हेतु विर्द्धका अव्यभिचारी अर्थात् विपक्षम रहता है धह विरुद्ध देल्वामास ही दोगा।
अचंटछत हेउुबिन्दुकी टीका ( ४० २०० ) से एक पद्रक्षण देनुबादीका मत आता है | उसने
पक्षघर्मरय, सपक्षसप्व, विपक्षप्यादृत्ति, जयाधितविषयरव, असवृप्रतिपक्षत्य और जावत्व ये ६ छक्षण
ट्ेतुके बताये हैं। इनमे ज्ञातत्य नामके रूपका निर्दश होनेसे इस वादीके मतसे “अज्ञात” नामका हेत्ा-
मास भी पल्त होता है । 'अक्ए ड्वदेवने इस अज्ञात हेत्वामासका अफिसित्करसें अन्वर्भाव किया है।
भौर प्रवरणसमकः जो कि दिसूतागके विरुद्धास्शमिचारी जैसा है विरुद्ध देत्थाभासमें अन्तर्माव किया
है। इस तरह अशल्कदेयने सामान्यरुपसे एक हेस्यामास क्टकर भी, विश्येष रुपसे असिद्ध, विरद,
अनैकास्तिक और जि श्ित्फर इन चार हेस्वामासोंका कथन क्या है।
अकलट्ठदेवका अभिश्राय अक्वित्वर देत्वाभासको स्पतम्त्र हेल्वाभास माननेऊे विषय सुट्ढ
मह्ों मार्म होता । ये लिखते' हैं कि सामान्यसे शुक असिद-देत्वाभास है । बह विरद अखिद्ू और
सन्दिग्धके भेदसे अनेक प्रकारवा हो जाता है। ये विरद्धादि जकिशिकरके विस्तार हैं 1 फिर लिपि है कि
श्म्यथामुपपत्ति रहित जितने प्रिज्क्षण है उन्हें जकिस्चित्कर कहना चाहिए | इससे ज्ञात होता है कि दे
सामान्यसे हेवाभासाोकी असिद्ध या अकिल्वि कर संज्ञा रखना चाहते हैं। इसको रवतस्त्र हेश्वाभास
माननेसा उनका आअइ नहीं दिखता । यही कारण है कि उत्तरकालीन आचार्य! माणिक्यनन्दीने क्रकिश्नि
स्परंका छक्षण और भेद कर घुकनेके बाद लिखा है कि इस हेत्वाभासका विचार देेः्थाभासके छएक्षणकि
खमय हो करना चाहिए शाखाथंके समय नहों। उस समय तो इसका कार्य पक्षदोपस ही किया
जा सकता है।
अल्युमानकी आवश्यकता--दर्शनके क्षेउ्में 'चार्चाक और तस्वोपक्ृघबादौकों छोडकर सरभाने
अलुमानको प्रमाण माना है। चार्वाक भी घ्यवहारमें अनुमानवी उपयोगिता मानता है उसका अजुमानके
निपेधसे इतना ही अर्थ दे कि परलोकादि अतीन्द्िय पदार्थों उसकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती ! उसने
अनुमानका निषेध करते समय विशेष रूपसे यही लिखा है कि क्तिनी भी सर्त क्तासे जजमान क्यों म
किया जाय किन्तु बह देशान्तर, कारान्तर भर परिस्थितियोंकी भिन्नताके कारण ध्यभिचारी देखा जाता
है। अग्निसे उत्पल्त होनेवाला भी धुआँ, बामीस अस्निके अमावसे भी दिखाई देता हैं। कर्सऐे आँवले
देशास्वरमें या हच्यान्वरके सयोय्स मीठे देखे जाते £। कसी देशमें दिंशपाकी छएता भी होती है।
अनन्त व्यक्तियोंकी देश-कालके अनुसार अनम्त परिस्थितियाँ होती है। अनन्त पदार्थ भी इसी तरह परि
स्वितियोंके भेदसे अनम्तानन्त म्रकारके हैं। इनमें कसी एफ अव्यभिचारी नियमका बनाना आयन्त
कठिन है। पदार्थकी सामान्य रूपसे सिद्धि करनेमे सिद्ध साधन है और विज्लेपमें अनुगम नहीं देखा जाता
ओर तदूनद् विद्येपाके सम्बन्ध झहण करनेमें पुरपक्री आयु दी समाप्त हो जायगी 1 इतनी सव कठिनाइयों-
के रहनेपर भी अनुमानकी प्रमाणवासे इनकार नहीं क्या जा सक्ता। प्रयक्षकों अमाणतावा समय
आजुभानके विना नहीं हो सकता | इसमें अविसवादी या अगाणत्व द्वेतुसे पुक पत्यक्ष च्यक्तिम धमाणता
देखकर ताइश समस्त प्रत्यक्ष व्यक्तियाको प्रमाण माननेकी पद्धति स्वीकार करनी हो होगी। जहाँ अलु-
भान करनेवालेकी असावधानीसे गत जयद सम्बत्ध मान लिया जाता है या यलव देठुका अयोग हो
जाता है बडाँ उसके अपराधसे जजुमान सात्रको अपामाणिक नहीं कहा जा सकता। बहुतसे प्रत्यक्ष भी
सदोप इंतुओंसे उत्पन्न होनेके कारण सन्दिग्ध और विपयंस्त होते हैं, पर इतने मोज़से निद्ठुंद अत्यक्षोंको
उसी जप्रमाण कोटियें धामिल महीं किया जा सकता 1 अत ज्ञानकी रिथिति ज़ब प्रमाणता और अप्रमा-
ग्रताके शलमे शूल्ूती रहती है तव किसी ज्ञानमें अभाणता और क्सौमें अप्रमाणवाके निश्चय करनेके
ह प्रमाण ० इलो० ४७ । २ प्रमाणस० इछो० ४९1॥ हे न्याववि० २१९७ ९८।
४ परीक्षामुख ६३९1 1 7
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