काव्यमीमांसा | Kavyamimansa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १६ ) प्राकृत भाषाके सम्बन्धमें वे छाट देशवासियोंकी प्रशंसा करते हुए थकते नहीं । बालरामायणके दसवें अंकमें उनके प्राकृतभमाषणके सम्बन्धमें जो कुछ कद्दा गया है, वह हम प्रसंगतः पीछे कह आए हैं। काव्य-मीमांस।के सप्तम अध्यायमें वे लिखते हैं कि लाट देशवासी संस्कृतके शत्रु होते हैं; परन्तु प्राकृत-पाठ सुन्दर करते हैं और जब्र वे प्राकृत कविताका पाठ करते हैं, तब उनके ललित उच्चारणके कारण जिह्माका संचालन, बहुत भा मालूम होता है)। बालरामायणमें वे कहते हैं, जब प्राकृत भाषाके अक्षर कानोंमें प्रवेश करते हैं; तत्र अन्य भाषाओंका रस कानोंको कड़वा छगता है। लाट-ललनाओं की बिहाद्वारा मधुरतासे उच्चारित प्राकृत भाषा कामदेवको उत्तेजित करती हे ।* लावदेशके अतिरिक्त दक्षिगापथर्में प्राकृत, पेशाची माषाओंका अधिकतर प्रचार था। राजशेखर प्राकृत भाषाको संस्कृतसे अधिक कोमल मानते हैं | कपूरमञ्जरीका प्राकृत भाभामें निर्माणका कारण बताते हुए उन्होंने लिखा है कि संस्कृत भाषा कठोर और प्राकृत कोमल है । संस्कृत और प्राकृतमें उतना ही अन्तर है, जितना कि पुरुष ओर स््रीमें होता है ।* राजशेखरके समय कान्यकुब्ज देशके कवियोंने भी प्राकृतका पर्याप्त प्रयोग किया है । राजशेखरके एक झतक पूर्ववर्ती भवभूतिने अपने नाटकोंमें, विशेषतः मालतीमाधवमें इन भाषाओंका प्रचुररूपेण प्रयोग किया है। भवभूतिके दूसरे सहयोगी महाकवि वाक्पतिराजने प्राकृत भाषामें ही “गोडवहो” ( गोडवंध ) नामक महाकाब्य लिखा है । इस अवसरपर प्राकृत और संस्कृतकी पीर्वापय समस्यापर भी राजशेखरने अच्छा प्रकाश डाला है । कुछ लोगोंका मत हैं कि प्राकृत प्रकृतिसिद्ध मूल भाषा है और संस्कृत उसका विश्वद्ध या परिष्कृत रूप है। दूसरा मत यह है कि संस्कृत मूछ भाषा है और प्राकृत उसका विकृत रूप। वह प्राकृतों अर्थात्‌ साधारण जनों क्री भाषा है। इन दोनों मतोंमें राजशेखर प्रथम मतके पश्षपाती हैं। वे प्राकृत भाषाक्रे लिए स्पष्ट ही कहते हैं कि 'यद्योनि: किल संस्कृतस्य' अर्थात्‌ प्राकृत भाषा संस्कृतकी जननी है।* इत प्रकार प्राकृत भाषाके संबन्धमें राज- शेखरके विचार अत्यधिक सम्मानपूर्ण मादूम होते हैं । प्राकृत भाषाके बाद दूसरा स्थान अपश्रंशका है। राजशेखरने इसे भव्य-भाषा कह्दा है । वे लिखते हैं 'सुभव्यो5्पश्रंश:? उनके मतमें मारवाड़, पूर्वी पंजाब तथा स्थालकोटका विस्तृत भाग अपश्रेश भाषाभाषी था*। काठियाबाड़ और गुजरातके लोग संस्कृतके साथ अपश्रंशका सुन्दर उच्चारण करते है * | अनज+ 3७ कजजज+ 3अऔण+ जज जी अननसअल >> धयओ “न अलमण-+- १, पठन्ति लटभे छाटाः प्राकृत संस्कृतद्विषः । जिद्दया ललितोह्लाप-लब्ध-सोन्दर्य मुद्या ॥ “-काव्यमीमांसा अ० ७ । २. देखिए-- बालरामायण, रायटदेशका वर्णन, अँक १० । ३. परुसा संक्किण बन्धा: पाडद बनन्‍्धों वि होई सुउमारो । पुरुस महिलाण जेतिअ मिहं तर॑ तेत्तिआ मिमाणं ॥ --कपूरमञ्ञरी ६, ८ । ४. देखिए--बाकरामायण, अंक १, 'छो० ४। ७५, सापम्रंशप्रयोगाः, सकलमरुभुवष्टक--भादानकाश्व। --कावष्यमीमांसा अ०, १० । सुराष्ट्रश्नरवणाधा ये पठन्त्य्पितसोष्ठचम्‌ । अपभंशावदंशानि ते संस्कृतवर्चास्यपि ॥ --काब्यमीमांसा, अ० ७ । न




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