मध्यकालीन हिन्दी सन्त विचार और साधना | Madhyakalin Hindi Sant Vichar Aur Sadhana
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
91 MB
कुल पष्ठ :
589
श्रेणी :
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No Information available about केशनी प्रसाद चौरसिया - Keshani Prasad Chaurasia
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्र सध्यकालान [हन्दा सच्त--+वरचार 4 राजा
करता ही न था। राजा-महाराजाओं झौर सुलतानों के यहाँ उसी की पूछ होती थी
जो लक्ष्मी के द्वारा पूछे गए होते । भरत: जनता का तीन-चोथाई भाग अपने आप
को भुलाकर 'होइहें वहि जो राम रचि राखा” तथा 'कोड नृप होइ हमें का हानी”
के भाग्यवादी भुलावों में फंसकर राजनीति से उदासीन परलोक-चिन्तन में
व्यस्त रहा । मानस के प्रारम्भ में जिन मोह-मदी अत्याचारी राक्षसों के श्रन््यायों
का सजीव चित्रण तुलसीदास ने उपस्थित किया है, वह वस्तुतः तत्कालीन
मोहम्मदी शासकों का ही है। इसका स्पष्टीकरण भी उन्होंने कर दिया है--
जिनके अ्रस श्राचरन भवानी । सो जानहु निसिचर सम प्रानी ।।
बरनि न जाए शनीति, घोर निसाचर जे कर्राह।
हिंसा पर श्रति प्रीति, तिन््ह॒के पार्पाहु कवनि मिति ॥
साधारण बुद्धि का व्यक्ति भी समझ सकता है कि तुलसी ने ऐसा समाज
अपनी आँखों से देखा था। दिनदहाड़े ऐसे अत्याचार, भयद्भुूर मारकाट देखकर
उनकी सहृदयता काँप उठी थी । कवि की संवेदनशील दृष्टि को इसमें रावण
राज्य की भाँकी मिली । पठानकाल में कुमारियों को बरजोरी से भ्रपहरण करने
की दुर्नीति का प्रतीक चित्र देखिए--
देव जच्छ गन्धरवं नर, किन्नर नाग कुम्तारि |
जीति बरों निज बाहुबल, बहु सुन्दर बरनारि ॥
“>-बालकाण्ड, श्टर ख
दशरथ के ख्वरों में तत्कालीन सामनन््ती वर्ग की कामुकप्रवृति मद्यप-प्रलाप
कर रही है-- जा,
.श्रनहित तोर प्रिया केहि कीन्हा | केहि दुइ सिर केहि जम चह लीन्हा ॥।
जानेसि मोर सुमाव बरोरू | मन तव प्ानन-चन्द चकोरू ।।
“-अयो5याकाण्ड, सोरठा २५४ के परचात्
प्रिया प्रान-सुत सरबसु मोरे । परिजन प्रजा सकल बस तोरे ॥।
वही, अयोध्या काण्ड
उपयुक्त स्वेच्छाचारी प्रवृत्ति तुलसी के आराध्यदेव के पिता दशरथ की कभी
नहीं हो सकती । इसमें युग का प्रभाव अनजाने ही प्रतीक रूप में उभर आया
है। मुसलमानों की मद्यपदृष्टि ही प्रिया के 'केलि-तरुन गुखदेन” वाली जद्भाओं
की माँसलता में अपनी रसिकता की चुटकियाँ लेती रही जो उसके सद्धेत मात्र
पर जनता-जनादंत के सारे सुखों को दाँव पर चढ़ाने में भी नहीं हिचकी । युग
का संश्लिष्ट-चित्रण जेसा तुलसीदास जी की रचनाओं में प्राप्त होता है, वेसा
श्रन्यत्र दुलंभ है । गत
१ रामचरितमादस : बालकारड १८३ ।
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