मध्यकालीन हिन्दी सन्त विचार और साधना | Madhyakalin Hindi Sant Vichar Aur Sadhana

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Madhyakalin Hindi Sant Vichar Aur Sadhana by केशनी प्रसाद चौरसिया - Keshani Prasad Chaurasia

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्र सध्यकालान [हन्दा सच्त--+वरचार 4 राजा करता ही न था। राजा-महाराजाओं झौर सुलतानों के यहाँ उसी की पूछ होती थी जो लक्ष्मी के द्वारा पूछे गए होते । भरत: जनता का तीन-चोथाई भाग अपने आप को भुलाकर 'होइहें वहि जो राम रचि राखा” तथा 'कोड नृप होइ हमें का हानी” के भाग्यवादी भुलावों में फंसकर राजनीति से उदासीन परलोक-चिन्तन में व्यस्त रहा । मानस के प्रारम्भ में जिन मोह-मदी अत्याचारी राक्षसों के श्रन्‍्यायों का सजीव चित्रण तुलसीदास ने उपस्थित किया है, वह वस्तुतः तत्कालीन मोहम्मदी शासकों का ही है। इसका स्पष्टीकरण भी उन्होंने कर दिया है-- जिनके अ्रस श्राचरन भवानी । सो जानहु निसिचर सम प्रानी ।। बरनि न जाए शनीति, घोर निसाचर जे कर्राह। हिंसा पर श्रति प्रीति, तिन्‍्ह॒के पार्पाहु कवनि मिति ॥ साधारण बुद्धि का व्यक्ति भी समझ सकता है कि तुलसी ने ऐसा समाज अपनी आँखों से देखा था। दिनदहाड़े ऐसे अत्याचार, भयद्भुूर मारकाट देखकर उनकी सहृदयता काँप उठी थी । कवि की संवेदनशील दृष्टि को इसमें रावण राज्य की भाँकी मिली । पठानकाल में कुमारियों को बरजोरी से भ्रपहरण करने की दुर्नीति का प्रतीक चित्र देखिए-- देव जच्छ गन्धरवं नर, किन्नर नाग कुम्तारि | जीति बरों निज बाहुबल, बहु सुन्दर बरनारि ॥ “>-बालकाण्ड, श्टर ख दशरथ के ख्वरों में तत्कालीन सामनन्‍्ती वर्ग की कामुकप्रवृति मद्यप-प्रलाप कर रही है-- जा, .श्रनहित तोर प्रिया केहि कीन्हा | केहि दुइ सिर केहि जम चह लीन्हा ॥। जानेसि मोर सुमाव बरोरू | मन तव प्ानन-चन्द चकोरू ।। “-अयो5याकाण्ड, सोरठा २५४ के परचात्‌ प्रिया प्रान-सुत सरबसु मोरे । परिजन प्रजा सकल बस तोरे ॥। वही, अयोध्या काण्ड उपयुक्त स्वेच्छाचारी प्रवृत्ति तुलसी के आराध्यदेव के पिता दशरथ की कभी नहीं हो सकती । इसमें युग का प्रभाव अनजाने ही प्रतीक रूप में उभर आया है। मुसलमानों की मद्यपदृष्टि ही प्रिया के 'केलि-तरुन गुखदेन” वाली जद्भाओं की माँसलता में अपनी रसिकता की चुटकियाँ लेती रही जो उसके सद्धेत मात्र पर जनता-जनादंत के सारे सुखों को दाँव पर चढ़ाने में भी नहीं हिचकी । युग का संश्लिष्ट-चित्रण जेसा तुलसीदास जी की रचनाओं में प्राप्त होता है, वेसा श्रन्यत्र दुलंभ है । गत १ रामचरितमादस : बालकारड १८३ ।




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