बृहदारण्यकवार्तिकसार भाग - 1 | Brihadaranyakavartiksar bhag - 1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शी न भूमिका सम्पूण भवध्याधियोंकी एकमात्र महौषधि जीवब्रह्ेक्य-ज्ञान उपनिषदोसे ही ग्राप्त हो सकता है, यह निर्विवाद है । प्रस्तुत अन्थके विषय और प्रयोजनका निर्देश करते हुए अन्थकारने भी स्पष्ट शब्दोमे कहा है--- शससारकारणाविद्याध्वसकृजज्ञानसिद्धये । प्रार्पेय प्रयल्लेन वेदान्तोपनिषत्‌ परा ॥ यहापर यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि “उपनिषत्‌” शब्दका अर्थ क्या है * इस विषयमे भी अन्थकर मौन नहीं हे। वे कहते है---“उपनिषत” शब्दका अर्थ ब्रह्ैक्यविज्ञान ही है, क्योकि “उपनिषत” शब्दका अवयवार्थ विज्ञानमे ही घटता है । उपनिषत्‌-शब्दमे उप, नि, सद्‌ और क्विप्‌ ये चार अवयब है। उपका अथ सामीप्य, निका निश्चय, सदूका विशरण, गति और अवसादन तथा क्विपका कती है | सबका निष्कष यह निकला कि शुद्ध त्वमण् जीवम्‌ उपोपकक्षित प्रत्यश्न ब्रह्म निश्चयेन नीत्वा--तत्स्वरूप आहृलयित्वा+-सकायों समूला च अविद्या शिथिल्यति नाशयति या सा उपनिषत” अथोत्‌ शुद्ध जीवको सामीप्योपलक्षित ब्रह्मफे पास पहुँचाकर--बअद्मस्वरूपका बोध कराकर--सकाये और समूल अविद्याका जो विनाश करती है, वह उपनिषत ( ब्रह्मविद्या ) है | विद्या और अविद्याका प्रकाश और तमकी नाई परस्पर विरोध सर्वविदित ही है। विरोधी होनेसे विद्या अविद्याको निवृत्त कर देती है। अविद्याकी निवृत्ति होनेपय उसके काये ससारकी स्वत निवृत्ति हो जाती है। उक्त रीतिसे उपनिषतका मुख्य अर्थ यद्यपि ब्रह्मविद्या ही है, तथापि उक्त विद्याकी प्राप्तिता उपाय होनेसे ग्रन्थ भी गौणीवृत्तिसे उपनिषत्‌ कहा जाता है, जैसे 'जीवन छाड़कूम!ः यहापर कृषकके जीवनका साधन हल जीवन कहा जाता है # इत्यादि । + देखिये ग्रयका उपोद्धात---अन्वोपनिषच्छब्दो. ब्रह्मविद्येकगोचर । तच्छब्दावयवार्यस्य विद्यायामेव. समवात्‌ ॥ उपोपसग सामीपण्ये तत्मतीचि समाप्यते ।




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