आचार्य क्षेमेन्द्र | Aacharya Kshemendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रबन्धो चित्य--आतनंदवधन का यह प्रसंग बड़ा मार्मिक है। इस ओतचित्य के नियामक तत्व इस प्रकार हैं। , (१) प्रसिद्ध तथा कल्पित बृत्तो में समानुपात रहना चाहिये । (२) व्यय वस्तु का प्रयोग प्रकृत रस के विपरीत नहीं होना चाहिये । श (३) जो घटनाये काव्य के मुख्य ध्येय में बाधक सिद्ध होती हों, उन्हें परिवर्तित कर देना चाहिये | ; (४) प्रासंगिक घटनाओ का विस्तार अंगी रस की दृष्टि में रखकर करना चाहिये। ऐसा न हो कि उसके अतिविस्तार से प्रमुख भाव दब जाय | (५) वर्णन विषय से दूर न हटने चाहिये। (६) अंग घटना का इतना विस्तार न किया जाय कि बह अंगी बन जाय | (७) प्रबन्ध काव्य की घटनाओं का निर्वाचन होना चाहिये। प्रकृत रस के अनुकूल घटनाओ का ही वहाँ वणुन न हो । (८) पात्रों की प्रकृति परिवर्तित न करनी चाहिये। रीत्यौचित्य--रीति का प्रयोग करते समय वक्ता, रस, अलंकार तथा काव्य के स्वरूप का ध्यान सदा रखना चाहिए। इनके अनुकूल वह हो प्रतिकूल ! इस विवेचन से स्पष्ट होता है कि आनंद वधन ने ओऔचित्य का विश्लेषण बड़ी मार्मिकता तथा विस्तार के साथ किया है। क्ेमेन्द्र को इन्हीं से प्रेरणा मिली थी । इसके अनन्तर वक्रोक्ति माग के प्रवतयिता कुतक ने भी इसका उल्लेख अपने ग्र'थ वक्रोक्ति जीवित” में किया है । उन्होने भोचित्य का लक्षण तथा महत्त्व दिखाते हुए कहा है कि--जिसके द्वारा स्वभाव का महत्त्व पुष्ट होता हो अथवा जहाँ वक्ता किंवा श्रोता के शोभाविशायी स्वभाव के कारण वाच्यवस्तु आच्छादित हो जाती हो वह ओचित्य है।' यहाँ ग्रन्थकार का यही आशय दे यदि किसी बण्य वस्तु का १. वक्रोक्ति जीवित १, हेफ; रे८ |




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