भातखण्डे संगीतशास्त्र भाग - 2 | Bhatakhande Sangeet Shastra Bhag - 2

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Bhatakhande Sangeet Shastra Bhag - 2 by विष्णुनारायण - Vishnunarayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्र भातखण्ड संगीत शाख पंडित--निस्सन्देह, यहो मैंने छोड़ा है। अब देखो, सा रे ग म स्वर मैंने स्पष्ट रूप से दिखाये, परन्तु पंचम को छुपा दिया, ऐसा करने पर भी तुम्हें वह दिखाई दिया। ठीक दै न ! वह तुम्हारी दृष्टि के सम्मुख बिना मेरे प्रयत्न के उपस्थित द्वोगया और ऐसा एक बार हुआ कि उसके पिछले स्वरों का कार्य पूरा हुआ। तुम्दीं देखो, पंचम स्वर मन में आते ही पिछले सारे स्वर अपने आप तुम्हें विस्मृत हो गये। इन स्वरों के अदृश्य दो जाने को द्वी हमारे श्राचीन विद्वानों ने मूच्छना कहा है। देखा न, कैसा अदभुत शास्त्रीय रहस्य है ? योग्य अधिकारी के बिना इसमें कुछ भी समझ में नहीं आ सकता | यह मूच्छना का मर्म बिना. गुरू. के कैसे. समझ में आ सकता है ? मैं--मैं तो स्पष्ट रूप से स्वीकार करता हूं कि यह व्याख्या मैंने आज ही पहिली बार सुनी है। मेरी तो बात ही क्या, परन्तु कोई यह भी कह सकते हैं कि हमारे बहुत से संस्कृत व देशी भाषाओं के प्रन्थकर्त्ताओं ने यह मर्स नहीं समझा होगा । हां, मूच्छना की व्याख्या अवश्य सभी की प्राय: एक ठी है । ा परिडत--अजी, तुम ग्रन्थों की उक्तियों का अर्थ जैसा ऊपरी-ऊपरी करते हो, मैं वैसा नहीं करता | मैं 1011050919 ( तत्व ज्ञान ) की दृष्टि से देखता हूं । प्राचीन पंडित क्या मूर्ख थे ? उनके लिखने की शैली ही भिन्न थी, अर्थात्‌ स्वरों का आरोह-अवरोह यानी मूच्छेना ! परन्तु आरोह, अवरोह करने की आवश्यकता ही क्‍यों पढ़ी ? यह भी किसी ने खोज की द्वे ? इस बात पर विचार करने में साधारण मनुष्य का तो मस्तक चकराने लगेगा । गत बजाते हुए ऐसे गुप्त स्वर सदा दिखाये जाते हैं। कभी सा, कभी १ आर कभी रे, इस प्रकार स्वर गुप्त द्वो सकते हैं । मैं--महाराज ! मूच्छीना के सम्बन्ध में आपकी कल्पना मुझे थोड़ी सी समभ में आ गई। अब 'भ्राम' के विषय में बताइये 1 परिडत--कहता हूं । 'प्राम” का वास्तविक अथ ही कोई-कोई नहीं समभते । 'प्राम! शब्द संस्कृत का है। वह तो स्थल वाचक स्पष्ट है ही। तब “प्राम” यानी एक स्थान होना चाहिये। तो वह स्थान कहां होगा ? तुम अपने गले पर हाथ फिराते चलो, और मेरे कथन की वास्तविकता का अनुभव करते जाओ 1 केवल मेरे कथन पर ही विश्वास न करो | “का” इस अक्षर का उच्चारण कहां से द्वोता है ? “की” व “कू” अक्षर कहां से उश्चारित दोते हैं ? क्‍या सब वर्णों में आ, ई, ऊ ये तीन स्वर प्रधान नहीं हैं? तुम अपने गले पर हाथ लगा कर देखो कि, ये तीन स्वर तीन निद्दि स्थानों से उत्पन्न होते हैं। ये गले के तीन स्थान द्वी 'प्राम” समझने चाहिये। मैं--यह्‌ नियमित स्थान सभी को मिल सकना, एक उलमन ही है। परिडत--वह तो हे द्वी ! कहते दी हैं कि जो खोजेगा वह पायेगा । हमारे विद्वानों ने सम्पूर्ण बातें इस शरीर में ही रखदी हैं । दूर जाने की ज़रूरत द्वी नहीं । दूसरी बात सुनो, तुमने संस्कृत अंथों में पढ़ा है कि अपने सप्त स्वर, सप्त द्वीपों से उत्पन्न होते हैं। इसका रहस्य तुम कया समझे ? देखें बताओ ? मैं--महाराज ! मैं आपकी कल्पनाओं में पहिले से द्वी गड़बड़ में .पढ़ गया हूं, इसलिये यह बताने योग्य धैय मुझमें नहीं रहा । मुमे। कई वर्षों का सह्लीत-सम्बन्धी




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