आग की लकीर | Aag Ki Lakir

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Aag Ki Lakir by अमृता प्रीतम - Amrita Pritam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नहीं पा रही धी--न कोई सड़क'** कानों मे पुरी के कहे हुए शब्द थे--'डॉक्टर साहब तुम्हारी माँ को अपने घर लाकर वह रझुतवा नही दे सके **सामाजिक मजबूरियाँ थीं*“'वह विवाहित थे***”--श्रौर नन्‍्दा की भ्रांखों के श्रागे एक वह सड़क घूमने तगी जो श्ञायद हसे शहर की नहीं थी--न जाने किस शहर था किस गाँव की थी--पर वह जो वहाँ जाती थी जहाँ कही उसकी माँ रहती थी*** बस जब नन्‍्दा के घर के सामने रक्की--नन्दा के ध्यान में ने सामने वाली सड़क थी, न सामने वाला घर । ड्राइवर के जोर से कहने पर--'नन्दा बीबी, आपका घर था गया, उतरेंगी नहीं ?” नन्‍्दा को जैरो होश भाया १ माथे में विचारों का कसाव था--नन्‍्दा को धर पहुंचकर सचमुच हलल्‍्का-सा बुखार हो गया था। लाज वीबी ने उसके मूँह की तरफ देखकर ही बुखार का भन्दाज़ा लगा लिया था--फिर हाथ शौर माथा छू कर देता--धर्मामीटर लगाया तो सो के क़रीब था। लाज बीवी ने चाय बना कर दी, नन्‍दा ने पी ली, पर दवाई नहीं खाई! भ्रपने कमरे में अपने दीवान पर भोंधे मुँह, एक ज्ञादर की श्रोट में पुरी को बताई हुई बात को फिर से श्रक्षर-प्रक्षर देखती--अपनी माँ की सूरत की कल्पना करने लगी । श्राज कई महीनों के बाद पहला दिन भा--पहली घड़ी--जब ननन्‍दा को पापा से अपनत्व भी हो श्राया शौर कुछ शिकवा भी-- उसने एक पल के लिए लाज बीवी की जगह उस औरत का चेहरा वाल्पना करके देखा जिसे उसने कभी देखा नहीं था । बह मुंह, पानी की लकीर की तरहें दिखाई देता शोर मिट जाता था--नन्दा ने हार कर छीशे में अपनी सूरत देसो--भोर फिर अपनी सूरत में कई काट्पथनिक बरस मिलाकर--मूँह के पके हुए मास को देखना चाहा--- पर साथ ही उसे खयाल भाया---“जरूरी नही मैंने माँ के नक्श लिए : हों--पापा के भी हो सकते हैं--या दोनों के कही मिले हुए-'*कहीं झतग'**” और नन्‍्दा को ख्याल भ्ाया--“मैं उस बदतसीव माँ को कमी एक घड़ी भी नहीं देख सकेगी ?” है और फिर भ्रचानक उसे स्वगा जेसे उसकी जगह छीवकर लाज जीबी ने मे ली हो'** पर नन्‍्दा को हमेशा बात में दलील का सिरा पकड़ने की ग्रादत २५




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