मंत्र सिद्धि | Mantra Siddhi

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Mantra Siddhi by गोविन्द शास्त्री - Govind Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अहू का भर्थे होता है मैं, और यह मैं हमारे लिए उसी स्थिति में कष्ट कर होता है जब हम इसे विकृत रूप से अभ्यास का विषय बनाते हैं । अहूं अपने सीमित रूप से परिचित रह कर जब अयधार्थ की स्थितियों मे उबलमे लगता है तो वह विकृत हो जाता है और हम व्यावहारिक भाषा मैं उसे अहंकार कहने लगते हैं। भहूं से व्यक्ति अपनी सामथ्यें सीमा से अधिक सोचने समझने लगता है और वह मम (मेरा) और मह्यम्‌ (मेरे लिए) के 'विकृत विस्तार से जुड़ जाता है। किसी भी कार्य के दायित्वुको अपने ऊपर ओढ़ लेता है और फलबुद्धि से प्रेरित हौकर सिमटता जाता है। यही सकोच उसे तरह-तरह के तनावों से घेर लेता है, उसकी दृष्टि दूषित हो जाती है, उसका चिन्तन विकार ग्रस्त हो जाता है ऐसी स्थिति मे ज्ञान की समग्रता दुर्लभ वस्तु घन जाती है। यह स्थिति हमारे आज के जीवन का ऐसा यथार्थ है जिससे हम सर परिचित हैं और यह मानसिक प्रकृति है जिसे हम चाहें तो शुद्ध और रूपा: न्तरित कर सकते हैं । रूपान्तरण होते ही हमारे सामने काम का द्वार खुल जाता है । हम ज्ञान की उज्ज्बलता विशालता और वैभव को देखकर हतः प्रभ रह जाते हैं। इसके बावजूद भी यह स्थिति कोई अकल्पित या अर्संभव मह्दी है दोनों ही तरह से इस दृष्टि का विकास किया जा सकता है। हम ससार को व्यक्त के रूप मे न देखकर प्रकृति के रूप में देखने लगें तो ये आग्रह कम हो सकते हैं। किसी भी व्यक्ति के लोभ, अहंकार या क्रोध को देखंकर हम उस व्यक्ति के प्रति कोई राय या प्रतिक्रिया ध्यक्त करते हैं यह हमारा अभ्यास है या यों कहें कि समाज में. रहते हुए हम इस प्रकार वे व्यवहार के बादी बनवाया करते हैं । इसके विपरीत क्रोध कर रहे व्यवित को अनदेखा करके उसकी कऋ्रोधमयी प्रकृति को देखें अथवा किसी परर सुद्ूरी रसणी को देखकर उसके रूप को नाम के साथ जोड़कर जानने पह चानने पाने के वजाय प्रकृति छा वेंभव समझ कर उसी का लीला बिलार होता यह टी हर के सी पा ससुहे -




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