श्रीरामचरितमानस | Shri Ram Charitamanas
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
54 MB
कुल पष्ठ :
1228
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)बालकाण्ड ५
सत्सजूके बिना विवेक नहीं 'होता और श्रीरामजीकी कृपाके बिना वह सत्सद्भ
सहजमें मिलता नहीं । सत्सद्भुति आनन्द और कल्याणको जड़ है। सत्सड्भकी सिद्धि
(प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल हैं ॥ ४ ॥
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई ॥ पारस परस कुधात सुहाई ॥
विधि बस सुजन कुसंगत परहीं । फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं ॥
दुष्ट भी सत्सज्भति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारसके स्पर्शसे लोहा सुहावना हो
जाता है (सुन्दर सोना वन जाता है) । किन्तु देवयोगसे यदि कभी सज्जन कुसज्भुतिमें पड़
जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँपकी मणिके समान अपने गुणोंका ही अनुसरण करते हैं (अर्थात्
जिस प्रकार साँपका संस पाकर भी मणि उसके विपको ग्रहण नहीं करती तथा अपने
सहज गुण प्रकाशको नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टोंके सड्भमें रहकर भी दूसरों-
को प्रकाश ही देते हैं, दुष्ठोंका उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता |) ॥ ५॥
विधि हरि हर कवि कोविद वानी । कहत साधु महिमा सकुचानी ॥
सो मो सन कहि जात न केसे। साक बनिक मनि गुन गन जेसें ॥
ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि ओर पण्डितोंकी वाणी भी संत-महिमाका वर्णन करनेमें
सकुचाती है; वह मुझसे किस प्रकार नहीं कही जाती, जंसे साग-तरकारी वेचनेवालेसे
मणियोंके गुणसमूह नहीं कहे जा सकते ॥ ६ ॥
दो०-बंदरँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ ॥ ३(क) ॥
मैं संतोंको प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्तमें समता है, जिनका न कोई मित्र है और
न शत्रु ! जैसे अज्जलिमें रक्खे हुए सुन्दर फूल [जिस हाथने फूलोंको तोड़ा ओर जिसने
उनको रकक््खा उन] दोनों ही हाथोंको समानरूपसे सुगन्धित करते हैं [वंसे ही संत शत्रु
और मित्र दोनोंका ही समानरूपसे कल्याण करते हैं| ॥ ३ (क) ॥
संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु ।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु ॥ ३(ख) ॥
संत सरलहृदय और जमगतूके हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेहको
जानकर में विनय करता हूँ, मेरी इस वाल-विनयको सुनकर कृपा करके श्रीरामजीके
चरणोंमें मुझे प्रीति दें ॥ ३ (ख) ॥
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