इति श्री पद्मनंदि पांचविंशतिका | Shri Padmanandi Panchavinshatika

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Shri Padmanandi Panchavinshatika by गजाधरलालजी - Gajadharlal Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पश्ममस्विपश्चविंशतिका [ & ] उस की कहते हैं कि जहां पर अपने उद्देश से भोजन न किया गया हो ऐसे गृहस्थों के घर में मौन सहित भिक्ता पृषेक आहार करना | इस गकार ये ग्यारह श्रत (प्रतिमा) शावकों के है, इन सब व्रतों में भी प्रथम सप्त व्यसनों का त्याग अवश्य कर देना चाहिये क्योंकि व्यसनों के बिना त्याग किये एक भी ग्रतिमा धारण नहीं की जासकती ॥१४॥ शादू ल विक्रिड़ित । यतप्रेक्त प्रतिमाभिरेभिरभितों विस्तारिभिः सूरिभि वातव्यं तदपासकाध्ययनतों गेहिब्रतं विस्तरात्‌। तत्रापि व्यसनोज्फन' यदि तदप्यासूत्यते >ज्रेवयत्‌ तन्मूल; सकलः सतां ब्रतविधियाति प्रतिष्ठा पराम ॥१५॥ अर्थ--समन्तभद्र आदि बड़े २ आचार्ये ने ग्यारह प्रतिमा तथा और भी ग्ृहस्थों के व्रत अत्यन्त विस्तार के साथ अपने २ अन्थों में वणन किये हैं इसलिये उपासकाध्ययन से इनका स्वरूप विस्तार से जानना चाहिये और उन्हों आचायी ने जूआ खेलना १ मद्यपीना २ मांस खाना ३२ आदि सातो व्यसनों का भलीभांति स्वरूप दिखाकर उनके त्याग की अ्रच्छी तरह विधि बतलाई है तथा इस ग्रन्थ में भी उन सप्तव्यसनों के त्याग का वशन फ्रिया जायगा क्योंकि सप्तव्यसनों के त्याग से ही सज्ञनों की त्रतविधि अत्यन्त ग्रतिष्ठाकों प्राप्त करती है बिना व्यसनों के त्याग के नहीं ॥१५॥ अनुप्टुप । द तमांससुरावेश्याखेट्चोय॑पराइना: । महापापानि सप्तेति व्यसनानि त्यजेद बुध: ॥१६॥ थ--जुआ खेलना १८मांस खाना २-मद्यपीना ३-पैश्या के साथ उपभोग करना ४-शिकार खेलना ४-चोरी करना ६-परस्त्री का सेवन करना ७ ये सात व्यसनों के नाम है तथा विद्ानों की इन ब्यंसनों का त्याग अवश्य करना चाहिये ॥१ ६॥ ' बा सप्तत्यसनों से उत्पन्न हुई हानि तथा सप्तव्यसनों के स्वरूप को एथक्‌ २ वर्णन करते हैं।




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