तारा रहस्यम् | Tararahasya Of Brahmananda Giri
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
154
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रथमपटले तारागायजन्नीप्रकरणम् र्रे
गायन्नीं परिजप्याथ मूलमन्त्रं जपेन्न च।
सा सन्ध्या निष्फत्षा ज्ञेयाप्यभिचाराय कहंपते ॥| ९२ ।|
प्रातःसन्ध्याविहीनश्थय॒ न॒च स्नानफलं लभेत्।
सध्याहसन्ध्याद्दीलश्व॒ न॒ पूजाफत्नमाप्ठुयात् ॥ €३॥
सायंसन्ध्यातिद्दीतस्य जपविष्तः सदा भवेत्।
तस्मात् सुन्दरि ! तत्वज्ञः सन्ध्यात्रयमुपाचरेत् ॥ ९४ |।
गायत्री का जप करके जो मूलमंत्र का जप नहीं करता, उसकी की गयी
'सब्ध्या' न्िष्फल कही गयी है, अथवा वह अभिचार के लिये होती है। हैं प्रिये !
जो प्रातः कालीन सन्ध्या नहीं करता, वह स्नान का फल नहीं पात्ता । मध्यात्ग
कालीन संघ्य. जो नहीं करता, उसे देव-पूजा का फल नहीं प्राप्त होता । इसी
प्रकार जो साय्यकालीन संध्या नहीं करता, उसके जप में सर्वदा विघ्न हुआ करता
है। इसलिये हें सुन्दरि ! तत््वज्ञ पुरुष को त्रिकार सन्ध्या अवद्य करनी
ऊहिये 0, ९२-९४ ५७
प्रातन तपेणं कार्य्य न च साथ॑ विशेषतः।
सध्याहे तपणं ऋत्वा यथोक्तफलचान भषेत् ॥ ६५ ॥
प्रात: कारू तथा सायंकाल में तर्पण नहीं करना चाहिये | हाँ! भध्याहू-
काल में तर्पण करके मनुष्य शास्त्रोक्त फल का भागो होता हैं ॥ ९५ ॥
अध्येहीना तुया सन्ध्या शोकदुःखप्रदा मता।
अध्य त्रिसन्ध्यं दातव्यमन्यथा सिष्फलो जप+।
समनन्त्रापि च गायत्री सत्यं सत्यं बरानने !॥ ९६॥
हे वरानने ! अध्यंहीन सन्ध्या भी निष्फल होती है तथा शोक और दुः्ख देने
वाली होती है । इसलिये तीनों काल में सन्ध्या के साथ अर्ध्य प्रदान करना
चाहिये । अन्यथा विधिवत् व्याहृति-सहित गायत्री का जप भी निष्फल होता
है--यह मैं सत्त्य-सत््य कहता हूँ ॥ ९६ ॥
ततः संहारमुद्रया तत्तेजः स्वहृदये नयेत् प्रशम्य च पूजाख़रेत्।
इत्येव॑ सन्ध्या श्रीमदेकजटाघिषया इति |
इसके वाद संहार मुद्रा द्वारा उसका तेज अपने हृदय में धारण करे और
प्रणाम करके उसकी विधिवत् पूजा करे। यह एक जदाविषयक सन्ध्या हुई।
अब उमप्रतारा-सन्ध्या का विचान देखिये ।
भीहिजेन्द्र कविकृत 'विद्या'व्याख्या-विभूषित् तारारह॒रुय का तारागायत्री
वर्णन नामक द्वितीय प्रकरण समाप्त ॥ २ ॥।
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